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जैन साहित्य में चैतन्य-केन्द्र ८१
जाता है, उस भाग से अतीन्द्रियज्ञान होने लग जाता है। इस दृष्टि से हमारे शरीर में अवधिज्ञान के अनेक क्षेत्र हैं, अनेक संस्थान हैं। ये संस्थान ही चक्र या चैतन्य-केन्द्र हैं। नन्दी सूत्र में अवधिज्ञान के छह प्रकार बतलाये गए हैं। - १. आनुगामिक
४. हीयमान २. अनानुगामिक
५. प्रतिपाति ३. वर्धमान
६. अप्रतिपाति ।" षट्खंडागम में अवधिज्ञान के तेरह प्रकार बतलाये गए हैं१. देशावधि
८. अनुगामी २. परमावधि
६. अननुगामी ३. सर्वावधि
१०. सप्रतिपाती ४. हायमान
११. अप्रतिपाती ५. वर्धमान
१२. एक क्षेत्र ६. अवस्थित
१३. अनेक क्षेत्र। ७. अनवस्थित
प्रस्तुत प्रसंग में एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र-ये दो भेद बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। जिसमें जीव-शरीर का एक देश (चैतन्य-केन्द्र) करण बनता है, वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है। जो प्रतिनियत क्षेत्र के माध्यम से नहीं होता, किन्तु शरीर के
१. षट्खंडागम, पुस्तक १३, पृ० २६६ धवला :
ओहिणाणमणेयक्खेत्तं चेव, सव्वजीवपदेसेसु अक्कमेण खओवसमं गदेसु सरीरेगदेसेणेव वज्झट्ठावगमाणुववत्तीदो? ण, अण्णत्थ करणाभावेण करण
सरूवेण परिणदसरीरेगदेसेण तदवगमस्स विरोहाभावादो। २. वही, पृ० २६६ धवला :
खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा ॥५॥ जहा कायाणमिदियाण च पडिणियदं सठाणं तहा ओहिणाणस्स ण होदि, किंतु ओहिणाणावरणीयखओवसमगदजीवपदेसाणं करणीभूदसरीरपदेसा
अणेगसंठाणसंठिदा होंति। ३. नन्दी, सूत्र । ४. षट्खंडागम, पुस्तक, १३ पृ० २६२ । ५. वही, पृ० २६५ :
जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करणं होदि तमोहिणाणमेगक्खेत्तं णाम।
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