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________________ ८० मनन और मूल्यांकन जब पीछे के चैतन्य- केन्द्र जागृत होते हैं तब पृष्ठतः अंतगत अवधिज्ञान होता है, उससे पृष्ठवर्ती ज्ञेय जाना जाता है । जब पार्श्व के चैतन्य- केन्द्र जागृत होते हैं, तब पार्श्वतः अंतगत अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, उससे पार्श्ववर्ती ज्ञेय जाना जाता है । जब मध्यवर्ती चैतन्य- केन्द्र जागृत होते हैं तब मध्यगत अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। उससे सर्वतः समन्तात् ( चारों ओर से ) ज्ञेय जाना जाता है । ' इसका निष्कर्ष है कि हमारे समूचे शरीर में चैतन्य- केन्द्र अवस्थित हैं । साधना के तारतम्य के अनुसार जो चैतन्य-केन्द्र जागृत होता है उसी में से अतीन्द्रिय ज्ञान रश्मियां बाहर निकलने लग जाती हैं। पूरे शरीर को जागृत कर लिया जाता है तो पूरे शरीर में से अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां फूट पड़ती हैं। अनेक चैतन्य केन्द्रों की सक्रियता से होने वाले अवधिज्ञान का नाम पूरे शरीर की सक्रियता से होने वाला अवधिज्ञान सर्वावधि है । किसी एक या देशावधि है । प्राणी के पास चार 'करण' होते हैं' - मन- करण, वचन-करण, काय करण और कर्म-करण | अशुभकरण से असुख का और शुभकरण से सुख का संवेदन होता है ।' श्वेताम्बर साहित्य में 'करण' के विषय में अर्थ की परंपरा विस्मृत हो गई । दिगम्बर साहित्य में उसकी अर्थ-परंपरा आज भी उपलब्ध है। उससे चक्र या चैतन्य केन्द्र के बारे में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है । करण का एक अर्थ होता है – निर्मल चित्त धारा । उसका दूसरा अर्थ हैचित्त की निर्मलता से होने वाली शरीर, मन आदि की निर्मलता । शरीर के जिस देश में निर्मलता हो जाती है, अर्थात् शरीर का जो भाग करणरूप में परिणत हो १. नन्दी, सूत्र १६ : अंतगयस्स मज्झगयस्स य को पइविसेसो ? पुरओ अंतगएणं ओहिणाणेणं पुरओ चेव संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ । मग्गओ अंतगएणं ओहिणाणेणं मग्गओ चेव संखेज्जाणि वा असं खेज्जाणि वा जोयणाइं जाणइ पासइ । पासओ अंतगएणं ओहिणाणेणं पासओ चैव संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ । झणं ओहिणणं सव्वओ समंता संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाइं जाणइ पासइ । २. भगवती ६/५ । ३. भगवती ६ / १४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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