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जैन साहित्य में चैतन्य-केन्द्र ७६
ने अपने योगग्रन्थों में हठयोग का समावेश किया, किन्तु जैन साहित्य में उपलब्ध चक्रों की ओर ध्यान नहीं दिया। देशावधिज्ञान चक्र सिद्धान्त का मौलिक आधार है। नन्दी सूत्र में देशावधि और सर्वावधि का उल्लेख नहीं है, किंतु उनकी व्याख्या बहुत विस्तार से मिलती है। अंतगत देशावधि का सूचक है और मध्यगत सर्वावधि का सूचक है। अंतगत अवधिज्ञान के तीन प्रकार हैं
१. पुरतः अंतगत। २. पृष्ठत: अंतगत। ३. पार्वत: अंतगत। चूर्णिकार और हरिभद्रसूरी ने अंतगत शब्द के अनेक अर्थ किए हैं१. यह औदारिक शरीर के पर्यन्त भाग में स्थित होता है, इसलिए अंतगत है।
२. यह स्पर्धक' अवधि होने के कारण आत्म प्रदेशों के अंतभाग में रहता है, इसलिए अंतगत है।
३. यह औदारिक शरीर के किसी देश (भाग) से साक्षात् जानता है, इसलिए अंतगत है।
औदारिक शरीर के मध्यवर्ती स्पर्धकों की विशुद्धि, सब आत्म-प्रदेशों की विशुद्धि अथवा सब दिशाओं का ज्ञान होने के कारण यह अवधिज्ञान मध्यगत कहलाता है।
जब आगे के चक्र या चैतन्य केन्द्र जागृत होते हैं तब पुरतः अंतगत अवधिज्ञान होता है। उससे अग्रवर्ती ज्ञेय जाना जाता है।
१. आत्मगुण का आच्छादन करने वाली कर्म की शक्ति का नाम स्पर्धक है। वह
दो प्रकार का होता है-देशघाति और सर्वघाति । आत्मा के किसी एक देश का आच्छादन करनेवाली कर्मशक्ति को देशघाति स्पर्धक और सर्व-देश का
आच्छादन करनेवाली कर्म-शक्ति को सर्वघाति स्पर्धक कहा जाता है। २. नन्दी चूर्णि, पृ० १६ :
(क) एवं ओरालि यसरीरंते ठितं गतं ति एगट्ट, तं च आतप्पदेसफड्डगावहि, एगदिसोवलंभाओ य अंतगतमोधिण्णाणं भण्णति । अहवा सव्वतप्पदेसविसुद्धेसू वि ओरालियसरीरेगतेण एगदिसिपासणगतं ति अंतगतं भण्णति । अहवा फुडतरमत्थो भण्णति-एगदिसावधिउवलद्धखेत्तातो सो अवधिपुरिसो अंतगतो ति जम्हा तम्हा अंतगतं भण्णति ।
(ख) नंदी सूत्र, हरिभद्रवृत्ति पृ० २३ । ३. नंदी चूणि, पृ० १६ :
मझगतं पुण ओरालियसरीरमज्झे फड्डगविसुद्धीतो सव्वातप्पदेसविसुद्धीतो वा सम्बदिसोवलंभत्तणतो मज्झगतो ति भण्णति ।
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