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संस्कृत साहित्य : एक विहंगावलोकन १३
राजस्थान के जैन लेखक भी इस प्रवृत्ति में पीछे नहीं रहे । महाकाव्यों की श्रृंखला में भी अनेक काव्यों की रचना हुई । उनमें 'भरतबाहुबलि महाकाव्य' का उल्लेख अनिवार्य है ।
जैनेतर ग्रंथों पर टीकाएं
जैन आचार्यों और विद्वानों को उदारता का दृष्टिकोण विरासत में प्राप्त था । उन्होंने उसका उपयोग साहित्य की दिशा में भी किया। जैन लेखकों ने बौद्ध और वैदिक साहित्य पर अनेक व्याख्याएं लिखीं। राजस्थान के जैन लेखक इसमें अग्रणी रहे हैं । हरिभद्रसूरी ने बौद्ध विद्वान् दिङ्नाग (ईसा की पांचवी शती) के न्यायप्रवेश पर टीका लिखी । पार्श्वदेव गणी ( अपर नाम श्रीचंद्रसूरी) ने विक्रम की बारहवीं शती में न्यायप्रवेश पर पंजिका लिखी ।
बौद्ध आचार्य धर्मदास के 'विदग्धमुख मंडन' पर जिनप्रभसूरी ने एक व्याख्या लिखी ।
खरतरगच्छीय जिन राजसूरी ने विक्रम की पंद्रहवीं शती में नैषध चरित पर टीका लिखी ।
विक्रम की पंद्रहवीं शती में बैराठ के अंचलगच्छीय श्रावक वाडव ने कुमारसंभव, मेघदूत, रघुवंश, माघ आदि काव्यों पर 'अवचूरि', विधा की व्याख्याएं निर्मित कीं ।
सिंहावलोकन
राजस्थान में संस्कृत की सरिता प्रवाहित हुई, उसमें जैन आचार्य आदि-स्रोत रहे हैं । ईसा की सातवीं शती में महाकवि माघ ( भीनमाल प्रदेश) अपनी काव्यशक्ति से राजस्थान की मरुधरा को अभिषिक्त कर रहे थे तो दूसरी ओर हरिभद्रसूरी ( चित्तोड़ ) अपनी बहुमुखी प्रतिभा से मरुधरा के कण-कण को प्राणवान् बना रहे थे। इसके उत्तरकाल में भी जैन लेखकों की लेखनी सभी दिशाओं में अनवरत चली । वह आज भी गतिशील है । वर्तमान शती में राजस्थान में विहार करने वाले जैन आचार्यों, साधु-साध्वियों और लेखकों ने अनेक ग्रंथों, काव्यों और महाकाव्यों की रचना की है । संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्तियां भी प्रचलित हैं । प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश आज प्रचलित भाषाएं: नहीं हैं । फिर भी ये बहुत समृद्ध भाषाएं हैं। वर्तमान की भाषा का प्रयोग करते हुए भी इनका मूल्य विस्मृत न करना — जैन परम्परा का यह चिरंतन सूत्र आज भी उसकी स्मृति में है । संस्कृत के विकास और उसकी प्रवृत्ति के पीछे भी वह सर्वत्र प्राणवान् रहा है ।
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