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________________ १२. मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र उपोद्घात कुछ लोग परम्परावादी होते हैं । वे परम्परा से प्राप्त अपने शास्त्रों को शाश्वत मानते चले जाते हैं । उन्हें उन शास्त्रों के पाठ और अर्थ में किसी अनुसंधान की अपेक्षा अनुभूत नहीं होती । किन्तु अनुसंधित्सु वर्ग इस बात को स्वीकार नहीं करता । वह शास्त्र के पाठ और अर्थ - दोनों का अनुसंधान करता है। जो कुछ या उपलब्ध होता है, उसे विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत भी करता है । 1 हमने आचार्यश्री तुलसी के वाचना- प्रमुखत्व में जैन आगमों के अनुसंधान का 'कार्य प्रारंभ किया । एक ओर हम पाठ का अनुसंधान कर रहे हैं तो दूसरी ओर अर्थ के अनुसंधान का कार्य भी चलता है । आगमों के सूत्र पाठ की अनेक वाचनाएं हैं और पन्द्रह सौ वर्ष की लम्बी अवधि में, अनेक कारणों से उनके अनेक पाठ-भेद हो गए हैं। बंद उनसे भी अधिक मिलता है। अनुसंधान का उद्देश्य है - मूल पाठ और मूल मर्म की खोज । अनेक प्रकार के पाठों ओर अर्थों में से मूल पाठ और अर्थ को निकालना कोई सरल कार्य नहीं है । फिर भी मनुष्य प्रयत्न करता है और कठिन कार्य को सरल बनाने को उसमें भावना सन्निहित होती है। हमारा प्रयत्न और हमारी भावना मूल के अनुसंधान की दृष्टि से प्रेरित है। इसीलिए इस कार्य के प्रति हमारा दृष्टिकोण सत्य के प्रति समर्पित है, किसी सम्प्रदाय या किसी विशेष विचार के प्रति समर्पित नहीं है । मंगलवाद दार्शनिक युग 'में शास्त्र के प्रारंभ में मंगल, अभिधेय, संबंध और प्रयोजन -- ये चार अनुबन्ध बतलाए जाते थे । आगमयुग में इन चारों की परम्परा प्रचलित नहीं थी । आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही अपने आगम का प्रारंभ करते थे । आगम स्वयं मंगल हैं । उनके लिए मंगल - वाक्य आवश्यक नहीं होता । जय-धवला लिखा है कि आगम में मंगल - वाक्य का नियम नहीं है, क्योंकि परम आगम में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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