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मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र १५
चित्त को केन्द्रित करने से नियमतः मंगल का फल उपलब्ध हो जाता हैं।' इस विशेष अर्थ को ज्ञापित करने के लिए भट्टारक गुणधर ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल नहीं किया ।
आचारांग सूत्र के प्रारंभ में मंगल वाक्य उपलब्ध नहीं है । उसका प्रारम्भ - 'सुयं मे आउसं ! तेण भगवया एवमक्खायं' - इस वाक्य से होता है।
सूत्रकृतांग सूत्र का प्रारंभ 'बुज्झेज्ज तिउट्टे ज्जा' - इस उपदेश वाक्य से होता है ।
स्थानांग और समवायांग सूत्र के आदि- वाक्य 'सुयं मे आउसं ! तेण भगवता एवमखातं' है ।
भगवती सूत्र के प्रारम्भ में तीन मंगल-वाक्य मिलते हैं
१. नमो अरहंताणं,
नमो सिद्धाणं,
नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं,
नमो बसाहूण २. नमो बंभीए लिवीए ३. नमो. सुयस्स ।
ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा - इन सब
सूत्रों का प्रारम्भ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं'-- से होता है ।
प्रश्नव्याकण सूत्र का आदि वाक्य है - 'जम्बू' ।
विपाक सूत्र का आदि वाक्य 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' है ।
जैन आगमों में द्वादशांगी स्वतः प्रमाण है । यह गणधरों द्वारा रचित मानी जाती है। इसका बारहवां अंग उपलब्ध नहीं है । उपलब्ध ग्यारह अंगों में, केवल भगवती सूत्र के प्रारंभ में मंगल- वाक्य हैं, अन्य किसी अंग-सूत्र का प्रारम्भ मंगलवाक्य से नहीं हुआ है । सहज ही प्रश्न होता है कि उपलब्ध ग्यारह अंगों में से केवल एक ही अंग में मंगल - वाक्य का विन्यास क्यों ? कालांतर में मंगल - वाक्य के प्रक्षिप्त होने की अधिक संभावना है। जब यह धारणा रूढ़ हो गयी कि
१. कसाय पाहुड भाग १, गाथा १, पृष्ठ ६ : एत्थ पुण नियमो णत्थि, परमाग - मुवजोगम्मि नियमेण मंगल फलोवलंभादो ।
२. वही, पृष्ठ ६ : एदस्य अत्यविसेसस्स जाणावणट्ठ गुणहरभट्टारएण गंथस्सादीए मंगलं कयं ।
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