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९६ मनन और मूल्यांकन
आदि, मध्य और अन्त में मंगल-वाक्य होना चाहिए तब ये मंगल-वाक्य लिखे गए। ___ भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक के प्रारंभ में भी मंगल-वाक्य उपलब्ध होता है-नमो सुयदेवयाए भगवईए। अभयदेव सूरी ने इसकी व्याख्या नहीं की है। इससे लगता है कि प्रारंभ के मंगल-वाक्य, लिपिकारों या अन्य किसी आचार्य ने, वृत्ति की रचना से पूर्व जोड़ दिए थे और मध्यवर्ती-मंगल वृत्ति की रचना के बाद जुड़ा । पन्द्रहवें अध्याय का पाठ विघ्नकारक माना जाता था इसलिए इस अध्ययन के साथ मंगलवाक्य जोड़ा गया, यह बहुत संभव है। मंगलवाक्य के प्रक्षिप्त होने की बात अन्य आगमों से भी पुष्ट होती है।
दशाश्रुतस्कंध की वृत्ति में मंगलवाक्य के रूप में नमस्कार मंत्र व्याख्यात है, किन्तु चूणि में वह व्याख्यात नहीं है। इससे स्पष्ट है कि चूणि के रचनाकाल में वह प्रत्तियों में उपलब्ध नहीं था और वृत्ति की रचना से पूर्व वह उनमें जुड़ गया था। कल्पसूत्र (पर्युषणाकल्प) दशाश्रुतस्कंध का आठवां अध्ययन है। उसके प्रारंभ में भी नमस्कार मंत्र लिखा हुआ मिलता है। आगम के महान् अनुसंधाता मुनि पूण्यविजयजी ने इसे प्रक्षिप्त माना है। उनके अनुसार प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रतियों में यह उपलब्ध नहीं है और वृत्ति में भी व्याख्यात नहीं है। यह अष्टम अध्ययन होने के कारण इस में मध्य मंगल भी नहीं हो सकता। इसलिए यह प्रक्षिप्त
प्रज्ञापना सूत्र के प्रारंभ में भी नमस्कार मन्त्र लिखा हुआ है, किन्तु हरिभद्रसूरी और मलयगिरि-इन दोनों व्याख्याकारों के द्वारा यह व्याख्यात नहीं है।
प्रज्ञापना के रचनाकार श्री श्यामार्य ने मंगल-वाक्य पूर्वक रचना का प्रारंभ
१.विशेषावश्यकभाष्य, गाथा, १३,१४ :
तं मंगलमाईए मज्झे पज्जतए य सत्थस्स । पढमं सत्थस्साविग्घपारगमणाए निद्दिट्ठ। तस्सेवाविग्घत्थं मज्झिमयं अंतिमं च तस्सेव । अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स ॥
कल्पसूत्र (मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित) पृष्ठ ३ : कल्पसूत्रारम्भे नेतद् नमस्कारसूत्ररूपं सूत्रं भूम्ना प्राचीनतमेषु ताड़पत्रीयादर्शेषु दृश्यते, नापि टीकाकृदादिभिरेतदादृतं व्याख्यातं वा, तथा चास्य कल्पसूत्रस्य दशाश्रुतस्कंधसूत्रस्याष्टमाध्ययनत्वान्न मध्ये मंगलरूपत्वेनापि एतत्सूत्रं संगतमिति प्रक्षिप्त मेवैतत् सूत्रमिति ।।
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