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२ मनन और मूल्यांकन
महाकाव्य और काव्य
I
जन साधारण में संस्कृत का ज्ञान नहीं था । फिर भी उसमें संस्कृत और संस्कृतज्ञ के प्रति सम्मान का भाव था। कुछ लोग सहृदय थे, वे काव्य के मर्म को समझते थे । काव्य-शक्ति दुर्लभ मानी जाती थी । राजस्थान के जैन कवियों ने केवल काव्यों की ही रचना नहीं की, उनमें कुछ प्रयोग भी किए। उदाहरण के लिए महोपाध्याय समयसुन्दर की अष्टलक्षी, जिनप्रभसूरी के व्याश्रय काव्य और उपाध्याय मेघविजय के सप्तसन्धान काव्य को प्रस्तुत किया जा सकता है।
अष्टलक्षी वि० सं० १६४६ की रचना है । उसमें 'राजा नो ददते सौख्यम्' इन आठ अक्षरों के आठ लाख अर्थ किये गए हैं ।
महाकवि धनंजय ( ग्यारहवीं शती) का द्विसन्धान काव्य तथा आचार्य हेमचंद्र का व्याश्रय काव्य प्रतिष्ठित हो चुका था । विक्रम की चौदहवीं शती में जिनप्रभसूरी ने श्रेणिक याश्रय काव्य लिखा । उसमें कातन्त्र व्याकरण की दुर्गसिंह कृत वृत्ति के उदाहरण और मगधपति श्रेणिक का जीवन चरित्र — दोनों एक साथ चलते हैं ।
विक्रम की अठारहवीं शती में उपाध्याय मेघविजय ने सप्तसंधान काव्य का निर्माण किया । उसमें ऋषभ, शान्तिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीरइन पांच तीर्थंकरों तथा राम और कृष्ण के चरित निबद्ध हैं ।
विक्रम की तेरहवीं शती में सोमप्रभाचार्य ने 'सूक्तिमुक्तावलि' की रचना की । वह सुभाषित सूत्र होने के साथ-साथ प्रांजल भाषा, प्रसाद गुण संपन्न पदावली और कलात्मक कृति है । इनकी 'श्रृंगार वैराग्य तरंगिणी' भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है ।
'सूक्तिमुक्तावलि' का दूसरा नाम 'सिंदूरप्रकर' है । इस पर अनेक व्याख्याएं लिखी गयीं। इसका अनुसरण कर कर्पूर प्रकर, कस्तूरी प्रकर, हिंगुल प्रकर आदि अनेक सूक्ति-ग्रंथों का सृजन हुआ ।
विक्रम की सातवीं शती तक जैन लेखक धर्म, दर्शन, न्याय, गणित, ज्योतिष, भूगोल, खगोल, जीवन-चरित और कथा- - मुख्यतः इन विषयों पर ही लिखते रहे।
विक्रम की आठवीं शती से लेखन की धाराएं विकसित होने लगीं। उसमें सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन, साम्प्रदायिक प्रतिस्पर्धा और संघर्ष, लोकसंग्रह के प्रति झुकाव, जैन शासन के अस्तित्व की सुरक्षा, शक्ति प्रयोग, शक्ति-साधना, चमत्कार - प्रदर्शन, जनता को आकर्षित करने का प्रयत्न, बाह्याचार पर अतिरिक्त बल आदि अनेक कारण बने ।
बौद्ध कवि अश्वघोष का बुद्धचरित बहुत ख्याति पा चुका था । महाकवि कालिदास, माघ और भारवि के काव्य प्रसिद्धि के शिखर पर थे । उस समय जैन कवियों में भी संस्कृत भाषा में काव्य लिखने की मनोवृत्ति विकसित हुई ।
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