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________________ ४. अहिंसा और अनेकान्त आचार का पहला अंग है-अनारंभ। यह हिंसात्मक प्रबृत्ति का निषेध है। उस समय कुछ मुनि प्रवजित होकर भी आरंभ-हिंसा करते थे। सूत्रकार कहते हैं-आरंभमाणा विणयं वयंति १-१७१-आरंभ भी करते हैं और विनय की बात भी करते हैं। उस समय विनय शब्द आचार-व्यवस्था के अर्थ में बहुत प्रचलित था। अन्यान्य परंपराओं में भी समूची आचार-व्यवस्था इस एक शब्द के द्वारा अभिहित होती थी। वे मुनि आरंभ भी करते और विनय (आचार-व्यवस्था) की भी बात करते। ये दोनों विरोधी बातें हैं। अनारंभ व्यक्ति विनय की बात कहता है तो वह उसके अनुरूप है। आरंभ करने वाला व्यक्ति आचार की बात कहता है तो वह एक विडंबना मात्र है। आचारवान् व्यक्ति आचार की बात कहता है तो उसका प्रभाव होता है, किन्तु आचारशून्य व्यक्ति यदि आचार की बात कहता है तो उसका कुछ भी प्रभाव नहीं होता, बल्कि उसके कथन से वह आचार भी हास्यास्पद बन जाता है। ___ आचार का मूल आधार है-अनारंभ । भगवान् महावीर की समूची साधनापद्धति में दो बातों पर बहुत बल दिया गया। उन्होंने कहा, “साधक के लिए अनारंभ और अपरिग्रह बहुत आवश्यक हैं। साधक की यह अनिवार्य आवश्यकता है कि वह अनारंभी हो, अपरिग्रही हो।" स्थानांग सूत्र का अभिमत है कि व्यक्ति दो कारणों से संबोधि को प्राप्त नहीं होता-आरंभेण परिग्गहेण-आरंभ से और परिग्रह से। इन दो कारणों से व्यक्ति विशिष्ट ज्ञान को प्राप्त नहीं होता। जितनी आध्यात्मिक उपलब्धियां हैं वे उस व्यक्ति को प्राप्त होती हैं जो आरंभ और परिग्रह से मुक्त है । जो आरंभ और परिग्रह में आसक्त है वह कभी इन उपलब्धियों को प्राप्त नहीं कर सकता। ये दो साधना के विध्न हैं। ___जो आरंभ करेगा वह आसक्त होगा। यह आसक्ति दूसरी आसक्तियों को भी पैदा करती है। आसक्ति का मूल है—प्रवृत्ति । जैसे-जैसे प्रवृत्ति बढ़ेगी आसक्ति भी उसी अनुपात में बढ़ती जाएगी। कुछेक कहते हैं हम अनासक्त भी रहते हैं और प्रवृत्ति भी करते हैं। यह कथन श्रुति-मधुर अवश्य है, पर है असंभव । प्रवृत्ति का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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