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________________ अहिंसा और अनेकान्त २५ का जाल बिछता जाए और व्यक्ति अनासक्त भी रहे, यह कभी संभव नहीं लगता। कोई विरल व्यक्ति ही इसे साध पाता है। यह सर्व सामान्य साधना नहीं हो सकती। सामान्य बात यह हो सकती है कि यदि व्यक्ति अनारंभी होगा तो वह अनासक्त हो सकेगा। आरंभी व्यक्ति अनासक्त नहीं हो सकता। आरंभ में अनासक्त योग का होना बहुत कठिन है। मक्खन अग्नि से दूर रहता है तब तक वह मक्खन का रूप बनाए रख सकता है। अग्नि पर उसे तपाया जाए और वह न पिघले, यह असंभव कार्य है। आग पर रखने पर भी वह न पिघले तो मानना चाहिए कि आग आग नहीं है और मक्खन मक्खन नहीं है। अहिंसा के विषय में भी यही बात लागू होती है। अनारंभ अवस्था में अनासक्ति की बात समझ में आ जाती है और साधना की प्रक्रिया भी उससे प्रस्फुटित होती है। किन्तु आरंभ करता जाए और व्यक्ति अनासक्त भी रहे या उसकी अनासक्ति बढ़ती जाए, यह उतनी ही दुर्लभ बात है जितनी कि मक्खन आग पर रखा जाए, पर पिघले नहीं। __मनुष्य की एक वृत्ति है-छंदोवणीया अज्झोववण्णा (१-१७२) । वह इच्छा के वशीभूत होकर चलता है। प्रवृत्ति का मूल है—इच्छा । उसमें इच्छा पैदा होती है। इच्छा के कुछ हेतु हैं, संस्कार हैं, कुछ शारीरिक अपेक्षाएं हैं। हमारा समूचा शरीर-तंत्र संचालित होता है अध्यवसाय और सूक्ष्म मन से। हम सोचते हैं कि हम मन से संचालित होते हैं। यह बात ठीक नहीं है । मन स्वयं दूसरों से संचालित होता है। प्राण-शक्ति से तीन तंत्र संचालित होते हैं- शरीरतंत्र, वाक्तंत्र और मानसतंत्र । ये तीनों अचेतन हैं। किन्तु जब ये प्राण-शक्ति से संयुक्त होते हैं तब सचेतन बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इनमें प्राण के माध्यम से चेतना का अवतरण होता है। प्राण-शक्ति का योग मिलते ही शरीर भी सचेतन, वाक् भी सचेतन और मन भी सचेतन हो जाता है। प्राणशक्ति संचालित होती है तैजस-शरीर से और तैजस-शरीर का संबंध जुड़ता है सूक्ष्म-शरीर से—कर्म शरीर से। इसका फलित यह हुआ कि चेतना सूक्ष्म-शरीर के स्तर पर काम करती है । अध्यवसाय और सूक्ष्म मन उसी स्तर पर काम करते हैं। उनसे ही सारे तंत्र संचालित होते हैं। किन्तु हमें लगता है कि स्थूल मन ही इनका संचालक है। वह संचालक नहीं है, वह तो स्वयं संचालित होने वालों में से है। सारा संचालित होता है कर्म-शरीर की चेतना से। मनोविज्ञान की भाषा में कहा जा सकता है कि मूल संचालक है- अवचेतन मन। मनुष्य अनेक अवसरों पर इस अन्तविरोध का अनुभव करता है कि मन कुछ चाहता है, पर वैसा होता नहीं, क्योंकि सूक्ष्म मन वैसा नहीं चाहता। हम बहुत बार मन के न चाहने पर भी अन्यथा काम कर लेते हैं। हमारी क्रिया में यह जो अन्तविरोध या असंगति आती है उसका मूल कारण यही है कि स्थूल मन चाहे या न चाहे, भावनात्मक मन यदि वैसा चाहता है तो वह काम हो जाएगा। जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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