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________________ संबोधि और अहिंसा ११ कारण है । हिंसा से ही व्यक्ति मुक्त हो सकता है जिसकी लोकैषणा समाप्त हो जाती है । लोकैषणा तब समाप्त होती है जब चेतना का ऊर्ध्वगामी विकास होता है, जब चेतना काम - केन्द्र से ऊपर उठकर प्रज्ञा के स्तर पर आ जाती है और शुद्ध निर्मल प्रज्ञा बन जाती है, ऐसी स्थिति में लोकैषणा समाप्त हो जाती है । तब व्यक्ति लोकैषणा से परे जाकर सोच सकता है । अन्यथा सबसे प्रिय यही लगता है— लोग मुझे वन्दना करें, मेरी स्तवना करें, मेरी पूजा-प्रतिष्ठा करें। जब ये प्राप्त होती रहती हैं तब व्यक्ति यह सोच भी नहीं सकता कि उसे अहिंसा का विकास करना है । यह प्रश्न उसके सामने उपस्थित ही नहीं होता । इस लोकैषणा से धर्म की धारणा विकृत बन जाती है । वह सोचता है— हिंसा से भी जन्म मरण से मुक्ति पाई जा सकती है, दुःखों से छुटकारा मिल सकता है। धर्म के साथ जो हिंसा जुड़ती है उसके दो कारण हैं— जन्म मरण से मुक्ति और दुःख से मुक्ति । जब तक यह प्रस्थापित नहीं किया जाता कि हिंसा होने पर जन्म मरण से तथा दुःख से छुटकारा नहीं मिल सकता तब तक हिंसा को सहारा मिलता है। इसलिए बहुत से धार्मिकों ने महावीर के समय में भी तंत्र आदि के प्रयोग चालू किए । पशु बलि की बात तो मान्य थी ही, नर बलि भी सम्मत हो गई । उसका आधार यही बनता था कि इन प्रक्रियाओं से शक्ति की उपासना होती है, आराधना होती है, देवता सन्तुष्ट होते हैं । देवताओं को तृप्त करते-करते, उनका अनुग्रह प्राप्त करते-करते संसार से भी मुक्ति पाई जा सकती है । इस संसार मुक्ति और दुःख-मुक्ति के लिए बहुत सारे लोग हिंसा करते थे । इस प्रकार हिंसा के मुख्य कारण बन जाते हैं -- लोकैषणा और धर्म की मिथ्या धारणा जो लोकैषणा से ही प्रेरित होती है । यह सारा ऐसे लोगों की मनःस्थिति का चित्रण है, जिनको संबोधि प्राप्त नहीं है, जो विषयों की परिधि में जीते हैं, मिथ्या धारणाएं बनाते हैं और हिंसा करते रहते हैं । जिनकी संबोधि जागृत हो जाती है, जिनकी प्रज्ञा संबोधि के स्तर पर उन्मेष लेती है, इन्द्रिय और मन के स्तर से ऊपर उठकर जिनका चैतन्य विकसित होता है वे व्यक्ति अपने आदानीय को प्राप्त हो जाते हैं, जो प्राप्तव्य है वह उन्हें प्राप्त हो जाता है - से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए (१-२४) । वे अपने आदान को लेकर चलते हैं । जब तक आदानीय नहीं मिलता, जो पथ प्राप्तव्य है वह प्राप्त नहीं होता; तब तक व्यक्ति हेय के साथ-साथ चलता है । चलने की दों दिशाएं हैं। एक है हेय के साथ-साथ चलना और दूसरी है. आदेय के साथ-साथ चलना । इन्द्रिय और मन की चेतना के साथ चलने वाला सदा हेय के साथ चलता है | जब व्यक्ति इस स्तर की चेतना से ऊपर उठ जाता है, जब उसमें संबोधि जागृत हो जाती है, तब वह आदानीय - उपादेय के साथ चलता है । आदानी के साथ उसकी यात्रा प्रारंभ हो जाती है । संबोधि प्राप्त होने पर, कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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