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नमस्कार महामंत्र का मूल स्रोत और कर्त्ता १०३
शताब्दी है । उन्होंने कायोत्सर्ग को नमस्कार के द्वारा पूर्ण करने का निर्देश किया है'। दशर्वकालिक सूत्र की दोनों चूर्णियों और हारिभद्रीय वृत्ति में नमस्कार की व्याख्या ' णमो अरिहंताणं' मंत्र के रूप में की है ।
आचार्य वीरसेन ने षड्खंडागम के प्रारम्भ में दिये गए नमस्कार मंत्र को निबद्धमंगल बतलाया है। इसका फलित यह होता है कि नमस्कार महामंत्र के कर्त्ता आचार्य पुष्पदन्त हैं । आचार्य वीरसेन ने यह किस आधार पर लिखा, इसका कोई अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । जैसे भगवती सूत्र की प्रतियों के प्रारम्भ में नमस्कार महामंत्र लिखा हुआ था और अभयदेवसूरी ने उसे सूत्र का अंग मानकर उसकी व्याख्या की, वैसे ही आचार्य पुष्पदन्त को उसका कर्त्ता बतला दिया । आचार्य पुष्पदन्त का अस्तित्व काल वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी ( ई० पहली शताब्दी) है । खारवेल का शिलालेख ई० पू० १५२ का है । उसमें 'नमो अरहंताणं' 'नमो सवसिधानं' - ये पद मिलते हैं। इससे नमस्कार महामंत्र का अस्तित्व-काल आचार्य पुष्पदन्त से बहुत पहले चला जाता है । शय्यंभव सूरी का दशवैकालिक में प्राप्त निर्देश भी इसी ओर संकेत करता है । भगवान् महावीर दीक्षित हुए तब उन्होंने सिद्धों को नमस्कार किया था । उत्तराध्ययन के बीसवें अध्ययन के प्रारम्भ में 'सिद्धाणं नमो किच्चा, संजयाणं च भावओ' - सिद्ध और साधुओं को नमस्कार किया गया है। इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि नमस्कार की परिपाटी बहुत पुरानी है, किन्तु भगवान् महावीर के काल में पंच मंगलात्मक नमस्कार मंत्र प्रचलित था या नहीं - इस प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर देना सरल नहीं है । महानिशीथ के उक्त प्रसंग के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान स्वरूप वाला नमस्कार महामंत्र भगवान् महावीर के समय में प्रचलित था । किन्तु उसकी पुष्टि के लिए कोई दूसरा प्रमाण अपेक्षित है। आवश्यक निर्युक्ति में एक महत्त्वपूर्ण
१. दसवेआलियं, ५ / १ / ६३ : णमोक्कारेण पारिता ।
२. (क) अगस्त्यचूर्ण, पृ० १२३; 'नमो अरहंताणं' ति एतेण वयणेण काउस्तग्गं पारेत्ता ।
(ख) जिनदास चूणि, पृ० १८६ |
(ग) हारिभद्रीयावृत्ति, पत्र १८० : नमस्कारेण पारयित्वा 'नमो अरहंताणं' इत्यनेन ।
३. षट्खंडागम, खंड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ४२ : इदं पुण जीवद्वाणं णिबद्धमंगलं । एत्तो इमेसि चोद्दसहं जीवसमासाणं इदि एदस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध ' णमो अरिहंताणं' इच्चादि देवदाणमोक्कारदंसणादो |
४. आयारचूला १५३२ :
सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ ।
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