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________________ २ मनन और मूल्यांकन जिसे यह ज्ञात हो जाता है कि मैं कहां से आया हूं, फिर आत्मा के बारे में कोई प्रश्न शेष नहीं रहता। इसलिए सबसे पहले इसी प्रश्न पर विचार किया गया कि बहुत लोग नहीं जानते कि वे कहां से आये हैं, इसलिए वे आत्मा के बारे में निश्चय नहीं कर पाते। जब यह पता नहीं होता कि मैं कहां से आया हूं तो यह पता भी नहीं होता कि मैं कौन हूं? मैं कहां जाऊंगा? ये तीनों बातें ज्ञात नहीं होतीं। जब इन तीनों बातों की जानकारी नहीं होती तो वह किसी भी निर्णय पर नहीं पहुंचता। उसका कोई आचार भी होगा तो वह केवल वार्तमानिक होगा। वर्तमान का जीवन, सामाजिक जीवन, किस प्रकार सुविधा से चल सके, उसी को लक्ष्य में रखकर आचार का निर्धारण होगा। - आचार के निर्धारण का एक दृष्टिकोण है-उपयोगितावाद और दूसरा दृष्टिकोण है-वास्तविकतावाद । उपयोगितावादी दृष्टिकोण यह होगा कि जो वर्तमान में हमारे लिए उपयोगी है, वही किया जाए। किन्तु बहुत से ऐसे कार्य हैं जो वर्तमान में उपयोगी नहीं हैं, अनुपयोगी होते हुए भी हमारे मूल उद्देश्य के लिए बहुत हितकर हैं। उन हितकर कर्मों का भी निर्धारण किया जाएगा। इसलिए आज विज्ञान के क्षेत्र में आत्मा के विषय में खोज हो रही है। बहुत सारे लोग सोचते हैं कि यदि आत्मा उपलब्ध हो गया तो चिन्तन की धारा ही बदल जाएगी, सारा दृष्टिकोण बदल जाएगा और फिर आचार का आधार ही बदल जाएगा। ऐसी स्थिति में मानव के सारे क्रियाकलापों का जो मूल दर्शन है, उसमें भी परिवर्तन आ जाएगा। अतः इस मूल प्रश्न का स्पर्श किया गया और यह निष्कर्ष निकाला गया कि आत्मा को जानने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे अव्याकृत कहकर नहीं छोड़ देना चाहिए। एक प्रश्न हो सकता है-क्या आत्मा को जाना जा सकता है ? इसका उत्तर हैहां, आत्मा को जाना जा सकता है। उसको जानने के तीन हेतु बन सकते icitic १. साधना करते-करते अतीन्द्रिय ज्ञान विकसित हो सकता है। उससे आत्म-साक्षात्कार हो सकता है। २. यदि साधना करने पर भी अपनी मति विकसित न हो तो प्रयत्न नहीं छोड़ना चाहिए। दूसरों को पूछते रहना चाहिए कि मैं कहां से आया हूं? मैं कौन हूं ? मैं कहां जाऊंगा? ये प्रश्न दोहराते रहना चाहिए । जब यह ज्ञात हो जाए कि अमुक व्यक्ति अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न है, उसके पास जाकर ये प्रश्न पूछने चाहिए। ३. किसी व्यक्ति को अतीन्द्रिय ज्ञानी से मिलने का अवसर मिला हो, वैसे व्यक्ति से सम्पर्क कर उन प्रश्नों का समाधान करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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