SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संबोधि और अहिंसा १५ 'एक विशेष अवस्था है । मूर्छा की पांच अवस्थाएं हैं १. निद्रा। २. निद्रा-निद्रा। ३. प्रचला। ४. प्रचला-प्रचला। ५. स्त्यानद्धि । स्त्यानद्धि अवस्था में चेतना इतनी सघन हो जाती है कि वह जड़ बन जाती है। वहां चेतन और अचेतन की भेदरेखा बहुत अस्पष्ट हो जाती है । स्थूलदृष्टि से सम्पन्न लोगों की दृष्टि में वह चेतना प्रतीत नहीं होती। पृथ्वीकाय के जीव स्त्यानद्धि चेतना का जीवन जीते हैं। यह इतनी जड़ीभूत चेतना की अवस्था है कि उसमें वे अपना लक्षण प्रकट नहीं कर सकते । इसमें रहने वाले जीवों को नहीं कहा जा सकता कि वे चेतन हैं। किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से सम्पन्न लोग यह कह सकते हैं कि पृथ्वी में चेतना की अनुभूति है। वे चेतन हैं, इसलिए उनमें सुख-दुःख की अनुभूति भी होती है। स्पर्श आदि प्रवृत्तियों के द्वारा उन्हें कष्ट की अनुभूति होती है। जो व्यक्ति पृथ्वीकायिक जीवों की सचेतनता स्वीकार कर उनके समारंभ से विरत होता है, वह 'परिज्ञातकर्मा' कहलाता है। जो परिज्ञातकर्मा होता है, वही अहिंसक होता है। ___ कर्म (प्रवृत्ति) के विषय में दो मुख्य धारणाएं हैं। एक है- अनासक्त भाव से कर्म करने की और दूसरी है-कर्म के त्याग की। प्रस्तुत सन्दर्भ में भगवान् महावीर ने कर्म-त्याग की बात कही और उस मार्ग का विशद प्रतिपादन किया। यह परित्याग ही विवेक है। जो कर्म-त्याग करता है वही अहिंसक होता है। हिंसासमारंभ को छोड़ने वाला अहिंसक होता है। कर्म को छोड़ने वाला अहिंसक होता है। परिष्कार की बात वृत्तियों में हो सकती है। कर्म में परिष्कार की बात नहीं आती। हिंसा करने के मानस का परिष्कार किया जा सकता है। मानस को अनासक्त बनाया जा सकता है। मानस के सन्दर्भ में यह बात हो सकती है, कर्म के सन्दर्भ में नहीं। कर्म का परित्याग किया जा सकता है। जो कर्म का परित्याग करता है वह परिज्ञातकर्मा मुनि कहलाता है। __ मुनि शब्द का अर्थ-सम्बन्ध मौन से नहीं है। संस्कृत साहित्य में मुनि का अर्थ बदल गया और मौन करने वाला मुनि कहलाने लगा। किन्तु प्राकृत साहित्य में मुनि शब्द का मौन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मोणेण मुणी होई-मौन से मुनि होता है। यहां 'मौन' का अर्थ है-ज्ञान। 'मुणाति-जाणाति'-मुनि वह है जो जानता है। 'मुण' धातु जानने के अर्थ में है। संस्कृत साहित्य में भी यह प्रचलित था-'मन्यते स मुनिः'—जो मनन करता है वह मुनि होता है। किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy