________________
१६ मनन और मूल्यांकन उत्तरकाल में इसको मौन के साथ जोड़ दिया गया। यह अर्थ संगत नहीं है। जैसे पंडित का अर्थ है-विरत-विरइं पडुच्च पंडिए त्ति आहिज्जई। उसी प्रकार मुनि का अर्थ है- ज्ञानी। ___ जो परिज्ञातकर्मा है वह मुनि है। जो हिंसा के कर्म को त्याग देता है, वह त्यागी ही पंडित है, मुनि है। जो हिंसा का परित्याग नहीं करता वह दुस्संबोहे अविजाणए-अज्ञानी ही रहता, उसे बोधि प्राप्त नहीं होती।
जो पृथ्वीकाय के जीवों के प्रति शस्त्र का प्रयोग नहीं करता, उस व्यक्ति के आरंभ स्वयं परित्यक्त हो जाते हैं। वह परिज्ञात हो जाता है। यहां 'शस्त्र' शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है। आचारांग के प्रथम अध्ययन का नाम ही है-शस्त्रपरिज्ञा-शस्त्र का विवेक । शस्त्र का विवेक हुए बिना हिंसा और अहिंसा को नहीं समझा जा सकता।
शस्त्र का अर्थ है-विरोधी वस्तु । शस्त्र दस प्रकार के होते हैं-अग्नि, विष, लवण, स्नेह, क्षार, अम्ल, दुष्प्रयुक्त मन, दुष्प्रयुक्त वचन, दुष्प्रयुक्त काया और अविरति । इनमें प्रथम छह द्रव्यशस्त्र और शेष चार भावशस्त्र हैं (ठाणं १०/६३). अग्नि भी एक शस्त्र है। नमक, विष आदि भी शस्त्र हैं। ये सब हैं द्रव्यशस्त्र । एक है भावशस्त्र । प्राणी का मनोभाव भी एक शस्त्र है। अविरति भी शस्त्र है। हिंसा से विरत न होना भी एक शस्त्र है। हिंसा का प्रयोग करना या हिंसा का मनोभाव करना भी हिंसा है, शस्त्र है।
कायिकी क्रिया के दो प्रकार हैं-अनुपरत कायिकी क्रिया और दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया । काया का वह प्रयोग जो विरत नहीं है, उपरत नहीं है वह अनुपरत कायिकी क्रिया है । दूसरा है--काया दुष्प्रयोग । अविरत काया भी शस्त्र है। मन, वचन और काया का दुष्प्रयोग न करने पर भी यदि उपरति नहीं है, उपरति का संकल्प नहीं है तो उस व्यक्ति की काया भी शस्त्र है।
एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स-इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स--इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति।
(१-३१, ३२) शस्त्र का असमारंभ उसी स्थिति में प्राप्त होता है जब काया उपरत हाती है, दुष्प्रयुक्त नहीं होती। दोनों स्थितियां बनती हैं तब शस्त्र का असमारंभ होता है। आरंभ अपने आप परिज्ञात हो जाता है, क्योंकि जब तक उपरति नहीं होती तब तक मनुष्य का भाव हिंसा से जुड़ा रहता है । जब भाव नहीं होगा तभी काया हिंसा से उपरत होगी। भाव सौर काया-जब दोनों शस्त्र नहीं बनते तभी आरंभ परित्यक्त होते हैं। सूत्रकार ने उपदेश की भाषा में कहा है-एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्म-समारंभा परिजाणियन्वा भवंति (१-११)।
(आचारांग के आधार पर-दूसरा प्रवचन-लाडनूं १३-१२-७७)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org