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मनन और मूल्यांकन
समाधान के रूप में द्रव्य हिंसा और भाव-हिंसा की बात स्थापित हुई । मैं मानता हूं कि यह उत्तरकालीन विकास है। यह एक प्रक्रिया है कि सबसे पहले सामान्यरूप से एक सिद्धांत स्थापित होता है । जैसे-जैसे समस्याएं आती हैं, उसकी कसौटी होती जाती है । जैसे-जैसे कसौटी होती है वैसे-वैसे नयी स्थापनाएं और नये आयाम स्थापित होते जाते हैं । अहिंसा का विकास भी समस्याओं के संदर्भ में हुआ है, उनके साथसाथ हुआ है। प्रत्येक समस्या का समाधान समाज के संदर्भ में होता है । व्यक्ति अकेला होता है, वहां संदर्भ की बात प्राप्त नहीं होती । वहां अध्यात्म की बात हो सकती है, सिद्धांत की नहीं । सिद्धांत की बात सदा समाज और समूह के संदर्भ में होती है, क्योंकि समूह में ही समस्या पैदा होती है और उसी संदर्भ में समाधान खोजे जाते हैं और उनकी स्थापना की जाती है । जैसे- दो मुनि साथ में रहते हैं । एक मुनि ने अनाचार का सेवन कर लिया। दूसरा जानता है । दोनों गुरु के पास आए । एक ने गुरु से कहा - "इस मुनि ने अनाचार का सेवन किया है।" गुरु उस मुनि से पूछते हैं। यदि वह अपना दोष स्वीकार करे तो गुरु उसे प्रायश्चित्त दें और यदि वह अपना दोष स्वीकार न करे और कहे - " इस मुनि ने मेरे पर झूठा अभियोग लगाया है । मैंने अनाचार का सेवन नहीं किया है ।" गुरु उसे प्रायश्चित्त नहीं दे सकते । कोई दोष की शुद्धि चाहे तो उसे प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, अन्यथा नहीं । दोष बताने वाला मुनि कहे- मैं इसके अनाचार सेवन का प्रत्यक्ष साक्षी हूं। मैंने इसे दोष का सेवन करते देखा है । यह अस्वीकार कर रहा है। यह झूठा है ।" इस स्थिति में गुरु क्या करें ? दोनों साधु हैं। दोनों उनके शिष्य हैं। तीसरा कोई नहीं है । उस स्थिति में गुरु अपने मन से निर्णय लें और यह लगे कि यह दोषी है तो उसे समझाकर प्रायश्चित्त दें। यदि स्वयं को यह प्रतीत हो कि यह निर्दोष है, तो दूसरा मुनि कितना ही कहे, उसे दोषी न मानें। प्रायश्चित्त न दें ।
दोनों मुनि अपनी बात को सत्य बता रहे हैं। एक कहता है - " मैं सहो कह रहा हूं।" दूसरा कहता है- "मैं सही कह रहा हूं।" गुरु व्यवहार के आधार पर निर्णय लेंगे। जिसका व्यवहार पुष्ट होगा, निर्णय उसके पक्ष में होगा । दोनों में से एक के पक्ष में निर्णय होगा : सत्य का जो मूल नियम है उसकी दृष्टि से देखें तो एक ओर असत्य का पोषण हुआ ही है। दोनों मुनियों में से एक तो असत्य है
। किन्तु सत्य के सिद्धांत का निरूपण बिल्कुल निरपेक्ष होता है । वहां केवल सत्य ही मान्य होगा और कुछ नहीं । किन्तु जहां समाज या समुदाय में समस्या आती है, वहां व्यवहार को प्रधानता देनी पड़ती है, निश्चय को गौण करना पड़ता है । निश्चय की दृष्टि से पांच महाव्रतों का प्रतिपादन सिद्धान्ततः ठीक है । किन्तु जब वह सिद्धांत व्यवहार में उतरा और नयी-नयी समस्याएं उत्पन्न हुईं तब अनेक उपजीवी सिद्धांत स्थापित किये गए । इसे हम एक उदाहरण से समझें । मुनि जा रहे हैं । एक गांव में पहुंचे। वहां ठहरने का एक ही स्थान है । मूर्ति के लिए
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