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________________ आत्म-तुला और मानसिक अहिंसा ३३ 1 1 विलुप्त हो रहा है और यदि उसे लिपिबद्ध न किया गया तो सारी ज्ञानराशि विलुप्त हो जाएगी । उस स्थिति में अनेक श्रुतधर मुनि एकत्रित हुए और यह व्यवस्था दी कि पुस्तकें लिखी जा सकती हैं, रखी जा सकती हैं। उससे पूर्व यह विधान था कि मुनि यदि एक अक्षर भी लिखता है तो उसे चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । नया विधान किया गया कि मुनि लिख सकता है, पुस्तकें रख सकता है । दो बातें हो गईं। एक विधान था पुस्तकें न लिखने और न रखने का और दूसरा विधान बना पुस्तकें लिखने और रखने का । यदि हम इस प्रश्न को आचारांग की कसौटी पर कसेंगे तो यह स्वीकार करना होगा कि यह आचारांग कालीन व्यवस्था नहीं है, महावीर कालीन व्यवस्था है । उस समय न लिखने की अपेक्षा मानी जाती थी और न ग्रन्थ रखे जाते थे । जीवन-निर्वाह के साधनमात्र रखे जाते थे । अनेक मुनि न वस्त्र रखते थे और न पात्र रखते थे । वे दिगंबर और करपात्री रहते थे । अचेल और पाणिपात्र - यह व्यवस्था थी । स्वाध्याय और ध्यान - यही जीवन-क्रम था । न उपदेश और न लोकसंग्रह | ज्यों-ज्यों संघ का विकास हुआ, लोक-संग्रह होने लगा, ध्यान और स्वाध्याय hat वृत्ति में कमी आयी तब ग्रन्थों के निर्माण की ओर ध्यान गया । ज्ञान बढ़ा, ग्रन्थ बढ़े । ग्रन्थ- निर्माण की परंपरा चल पड़ी। यह नया सिद्धांत स्थापित हो गया कि मुनि ग्रंथों का निर्माण कर सकता है । और यह स्थापना इस तर्क के आधार पर की गई कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि के लिए यदि लिखा जाता है तो कोई आपत्ति नहीं है । फिर प्रश्न उठा कि एक अक्षर भी लिखते हैं तो उसमें हिंसा होती है तो ग्रन्थ का निर्माण कैसे किया जाए ? इस के समाधान में कहा गया कि अक्षर लिखने में जो हिंसा होती है, वह द्रव्य-हिंसा है, भाव-हिंसा नहीं है। मुनि सावधानीपूर्वक चल रहा है, फिर भी संभव है कि चलते समय जीव - हिंसा हो जाए, या मुनि से टकराकर कोई प्राणी मर जाए, वह द्रव्य - हिंसा है, क्योंकि मुनि में प्राण - वियोजन करने का कोई भाव नहीं होता और न वह मुनि प्रमत्त है। वह सावधानीपूर्वकचल रहा है। मुनि केवल निमित्त बना, इसलिए वह द्रव्य - हिंसा है, भाव-हिंसा नहीं है । पुस्तक लिखने के परिप्रेक्ष्य में भी कहा गया कि हम केवल ज्ञान की सुरक्षा के लिए ग्रन्थ लिखते हैं । जीवों को मारने की भावना नहीं होती। इतना होने पर भी यदि कोई जीव मर जाता है तो वह द्रव्य -हिंसा होगी, भाव-हिंसा नहीं होगी ! इस तर्क के आधार पर ग्रन्थ-निर्माण और ग्रन्थ रखने की स्थापना हुई। यह भी एक नयी स्थापना थी, क्योंकि आचारांग में द्रव्य - हिंसा और भाव-हिंसा की चर्चा नहीं है । उत्तरकाल के आगमों में या ग्रन्थों में यह चर्चा मिलती है। सारी चर्चा द्रव्य - हिंसा को सामने रखकर की गई है । द्रव्य - हिंसा और भाव - हिंसा का सिद्धांत परिस्थितियों और समस्याओं के समाधान के रूप में स्थापित हुआ । जीवन का व्यवहार ऐसा है कि वह ग्रन्थ ( हिंसा) आदि के बिना नहीं चल सकता और आचार-पक्ष में पूर्ण अहिंसा के पालन की बात आती है तो दोनों में एक टकराव होता है। इस टकराव के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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