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________________ ८८ मनन और मूल्यांकन यस्य निखिलाश्च दोषाः न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ -'जिसके समस्त दोष नष्ट हो च के हैं, सब गुण प्रकट हो गए हैं, उसे मेरा नमस्कार है, फिर वह ब्रह्मा हो या विष्णु, महादेव हो या जिन। 'शास्त्रवार्ता' हरिभद्रसूरि की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। सात सौ श्लोक वाले इस ग्रंथ में विभिन्न दर्शनों के मतों की समीक्षा है। उसमें निरसन की दृष्टि मुख्य नहीं है, समन्वय की दृष्टि सतत उपलब्ध है । उसका आधारभूत तत्त्व यह है शास्त्रकारा महात्मानः, प्रायो वीतस्पहा भवे। सत्त्वार्थसंप्रवृत्ताश्च, कथं तेऽयुक्तभाषिणः॥ अभिप्रायस्ततस्तेषां, सम्यग्मग्यो हितैषिणा।' -जितने भी शास्त्रकार हैं वे सब महात्मा हैं। प्रायः वे स्पृहारहित और जनहित के लिए प्रवृत्त होते हैं। वे अयुक्तभाषी कैसे होंगे? इसलिए सत्य-संधित्सु व्यक्ति को उनके अभिप्राय की सम्यक् गवेषणा करनी चाहिए।' ___ बौद्ध विद्वान् दिङ नाग (५ वीं शती) के न्यायप्रवेश पर लिखित टीका इसका साक्ष्य है कि अनेकान्त का दृष्टिकोण संप्रदायातीत है। षड्दर्शन समुच्चय एक लघु कृति है, पर इस दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि उसमें सभी दर्शनों के अभ्युपगमों का तटस्थ निरूपण है। ___'अनेकान्तजयपताका' (स्वोपज्ञवृत्ति सहित), 'अनेकान्तवाद प्रवेश' और 'सर्वज्ञसिद्धि' जैनन्याय के उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। सोलह षोडशकों और बत्तीस अष्टकों में विविध विषय चचित हैं। वे केवल कर्ता की बहुश्रुतता के ही द्योतक नहीं हैं, संस्कृत साहित्य के गौरव-स्तम्भ भी हैं। उनमें सिद्धान्त-प्रतिपादन के साथ-साथ कवित्व भी हैं शुश्रूषा चेहाद्य, लिङ्ग खलु वर्णयन्ति विद्वांसः । तदभावपि श्रावणमसिरावनिकूपखननसमम् ॥ -'बुद्धि का पहला गुण शुश्रूषा है। उसे जागृत किए बिना तत्त्वज्ञान सुनाने का प्रयत्न वैसा ही है जैसा जलस्रोतरहित भूमि में कुआं खोदने का प्रयत्न ।' ___ कुछ विद्वान् कहते हैं-जैन साहित्य में गृहस्थ धर्म की सर्वांगीण मीमांसा नहीं मिलती। यदि 'धर्मबिन्दु' उन्हें उपलब्ध होता तो यह आलोचना नहीं होती। आठ अध्याय वाले इस ग्रन्थ के प्रथम तीन अध्यायों में गृहस्थ के लौकिक और लोकोत्तर–दोनों जीवन पक्षों का संतुलित निरूपण है। १. लोकतत्त्वनिर्णय, ४० । २. शास्त्रवार्तासमुच्चय, ३/१५,१६ । ३. षोडशक, ११।१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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