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________________ संस्कृत साहित्य : एक विहंगावलोकन ८६ हरिभद्रसूरी ने योग की विविध परंपराओं का समन्वय कर जैन योगपद्धति को नया रूप प्रदान किया। 'योगविशिका' प्राकृत में लिखित है । संस्कृत में उनकी दो महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं-'योगदृष्टिसमुच्चय' और 'योगबिन्दु'। उनमें जैनयोग और पतंजलि की योग पद्धति का तुलनात्मक अध्ययन बहुत सूक्ष्ममति से किया गया है। अनेकान्तदृष्टि प्राप्त होने पर सांप्रदायिक अभिनिवेश समाप्त हो जाता है। योग मार्ग में भी वह नहीं होता। यह आशय इन शब्दों में व्यक्त हुआ है आत्मीयः परकीयो वा, कः सिद्धान्तो विपश्चिताम् । दृष्टष्टाबाधितो यस्तु, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥' -'ज्ञानी के लिए कोई भी सिद्धांत अपना या पराया नहीं होता। जो प्रत्यक्ष और हेतु से अबाधित होता है, वही उसके लिए मान्य होता है।' विक्रम की आठवीं शती में संस्कृत साहित्य की जो धारा प्रवाहित हुई, वह वर्तमान शती तक अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित है। वह कभी विशाल हुई है और कभी क्षीण, पर उसका अस्तित्त्व निरंतरित रहा है। जैन परंपरा के संस्कृत साहित्य पर अभी कोई व्यवस्थित कार्य नहीं हुआ है। लेखक, लेखन-स्थान, लेखन-काल-ये सब अभी निर्णय की प्रतीक्षा में हैं। अब तक 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' इस शीर्षक से जितने प्रबन्ध लिखे गए हैं, वे या तो जैन परंपरा के संस्कृत साहित्य का स्पर्श नहीं करते या दो-चार प्रसिद्ध ग्रन्थों का विवरण प्रस्तुत कर विषय को सम्पन्न कर देते हैं । जैन विद्वान् भी इस कार्य के प्रति उदासीन रहे हैं । इन दिनों कुछ ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, पर वे अपेक्षा के अनुरूप शोधपूर्ण और वैज्ञानिक पद्धति से लिखित नहीं हैं। मैं इस अपेक्षा को इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूं कि 'जैन परंपरा के संस्कृत साहित्य का इतिहास' इस विषय का एक महाग्रंथ आधुनिक शैली में तैयार किया जाए। मैं नहीं मानता कि इस लघुकाय निबंध में मैं राजस्थान के जैन लेखकों की सभी संस्कृत रचनाओं के साथ न्याय कर सकूँगा। हरिभद्रसूरि की रचनाओं के बाद सिद्धषि की महान् कृति 'उपमितिभवप्रपंचकथा' है । यह वि० सं० ६०६ (ई० स० ९६२) में लिखी गयी थी। शैली की दृष्टि से यह एक अपूर्व ग्रंथ है। इसमें काल्पनिक पात्रों के माध्यम से धर्म के विराट स्वरूप को रूपायित किया गया है। डॉ० हीरालाल जैन ने लिखा है-इसे पढ़ते हुए अंग्रेजी की जॉन बनयन कृत 'पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस' का स्मरण हो आता है, जिसमें रूपक की रीति से धर्मवृद्धि और उसमें आने वाली विघ्न-बाधाओं की कथा कही गयी है। सिद्धर्षि ने उपदेशमाला की टीका लिखी, कुछ अन्य ग्रन्थ भी लिखे। पर मैं केवल उन्हीं ग्रन्थों का नामोल्लेख करना अपेक्षित समझता हूं, जिनका विधा और वर्ण्य-विषय की दृष्टि से वैशिष्ट्य है। १. योगबिंदु, ५२४। २. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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