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________________ १६. जैन साहिय के मालोक में गीता का अध्ययन भगवद्गीता विश्व साहित्य के आकाश में एक तेजस्वी नक्षत्र की भांति प्रतिष्ठित है। उसके लघु शरीर में विशाल तत्त्व की प्रतिष्ठा हुई है। अणु से महान् और स्थूल से सूक्ष्म-सभी तत्त्वों के बीज उसमें उपलब्ध होते हैं। उसकी इस व्यापकता ने ही अनेक द्रष्टाओं को अनेक दृष्टियों से देखने का अवसर दिया है। उसकी अनेक व्याख्याओं का मूल कारण यही है। आचार्यश्री तुलसी ने अनेक बार मुझे कहा-गीता की अनेकांतदृष्टि से व्याख्या की जाए। यह विचार बहुत महत्त्वपूर्ण है। अनेकान्तदृष्टि से गीता का मूल्यांकन, साथ-साथ भारतीय दर्शनों का भी मूल्यांकन हो तो सहज ही अनेकता से एकता की दिशा में हमारा प्रस्थान संभव होगा। सत्य अनेकरूप नहीं है। अनेकरूपता परिभाषा, व्याख्या और शब्दिक-चयन में है। शास्त्रों की अनेकवाक्यता को ध्यान में रखकर ही महामनीषी कुमारिल ने सर्वज्ञता के विषय ने अपना संदेह प्रकट किया था। उनका प्रश्न था-- "यदि शास्त्रकार सर्वज्ञ हैं तो शास्त्रों में भेद क्यो ? यदि शास्त्रों में भेद है तो शास्त्रकार सर्वज्ञ कैसे?" यह प्रश्न पहेली जैसा लगता है, पर इस पहेली को बुझाना कोई जटिल काम नहीं है। सर्वज्ञ सब जान सकता है, पर सब कह नहीं सकता। ज्ञान के साथ जहां भाषा जुड़ती है, वहां ज्ञान ससीम हो जाता है। भाषा ससीम है। ससीम से जुड़ा हुआ ज्ञान असीम कैसे हो सकता है ? दुनिया का कोई भी शास्त्र इस सीमा का अतिक्रमण नहीं करता। फिर भी मनुष्य ने ससीम में छिपे असीम को खोजने का प्रयत्न किया है। गीता इस कोटि का ग्रन्थ है जिसे माध्यम बनाकर ससीम में छिपे असीम को खोजने का प्रयत्न किया जा सकता है। प्रस्तुत निबंध में गीता के कुछेक विषयों का जैन तत्त्व की दृष्टि से अनुशीलन यह निदर्शित किया है कि भाषा की भिन्नता होने पर भी सत्य की अभिन्नता होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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