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________________ ११६ मनन और मूल्यांकन मन के माध्यम से होने वाला ज्ञान विशिष्ट कोटि का होने पर भी परोक्ष ही होता है। विकास के क्रम के अनुसार प्रत्येक प्राणी में चेतना अनावृत होती है । इन्द्रिय, मानसिक और बौद्धिक चेतना के साथ-साथ कुछ अस्पष्ट या धुंधली सी अतीन्द्रिय चेतना भी अनावृत होती है । पूर्वाभास, विचार संप्रेषण आदि उसी कोटि के हैं। उनकी स्पष्टता के लिए शरीरगत चैतन्य- केन्द्रों को निर्मल बनाना होता है । संयम और चरित्र की साधना जितनी पुष्ट होती है, उतनी ही उनकी निर्मलता बढ़ती जाती है । चैतन्य केन्द्रों को निर्मल बनाने का सबसे सशक्त साधन है ध्यान । प्रियता और अप्रियता के भाव से मुक्त चित्त नाभि के ऊपर के चैतन्य- केन्द्रों ( आनन्द - केद्र, विशुद्धि - केन्द्र, प्राण- केन्द्र, दर्शन-केन्द्र, ज्योति केन्द्र और ज्ञान केन्द्र) पर केन्द्रित होता है, तब वे निर्मल होने लग जाते हैं । इसका दीर्घकालीन अभ्यास अतीन्द्रिय ज्ञान की आधारभूमि बन जाता है । अतीन्द्रियज्ञान के धुंधले रूप चरित्र के विकास के बिना भी संभव हो सकते हैं । किन्तु अतीन्द्रिय चेतना के विकास के साथ चरित्र के विकास का गहरा संबंध है। यहां चरित्र का अर्थ समता है, रागद्वेष या प्रियता- अप्रियता के भाव से मुक्त होना है । उसकी अभ्यास-पद्धति प्रेक्षाध्यान है । प्रेक्षा का अर्थ है - देखना । देखने का अर्थ है चित्त को राग-द्वेष से मुक्त कर ध्येय का अनुभव करना । दर्शन की इस प्रक्रिया को अतीन्द्रिय चेतनाविकास की प्रक्रिया कहा जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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