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जैन साहित्य के आलोक में गीता का अध्ययन ११९
मन गतिशील है। उसकी गति पदार्थ में हो या चेतन में, बाह्य जगत् में हो या अन्तर्जगत् में, उसका नियमनबुद्धि के द्वारा होता है । इन्द्रियों का नियमन मन के द्वारा होता है, इसका संकेत मिलता है, किन्तु भाष्यकार ने इसे स्पष्ट कर दिया कि विवेकयुक्त मन के द्वारा ही इन्द्रियों का नियमन होता है। केवल मन में उनका नियमन करने की शक्ति नहीं है।
अभ्यास के द्वारा चित्त की भूमि में उसकी समान प्रत्यय वाली वृत्ति होती है। वैराग्य के द्वारा चित्त में वितृष्णा उत्पन्न होती है। जब चित्त शान्त होता है तब मन का निग्रह सहज ही हो जाता है। इसका अर्थ है-मन उत्पन्न ही नहीं होता। जैन दर्शन के अनुसार मनन से पूर्व और मनन के बाद मन नहीं होता, मनन के क्षण में ही मन होता है-'मन्यमानं मनः ।
यह उलझा हुआ प्रश्न है कि एकाग्र मन होता है या चित्त होता है ? निरोध मन का होता है या चित्त का होता है ? गीता का दर्शन है-एकाग्रता और निरोध--ये दोनों चित्त की अवस्थाएं है। जैन दर्शन के अनुसार मन की गुप्ति और मन का समाहरण होने पर चित्र एकाग्र होता है। एकाग्रता मन की भी हो
१. गीता, ६।२५, २६ : शनैः शनैरुपरमेद् बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थ मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥ यतो यतो निश्चरति मनश्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। २. वही, ६।२४ : संकल्पप्रभवान् कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ।। भाष्य
किं च मनसा एव विवेकयुक्तेन इन्द्रियग्रामम्-इन्द्रिय
समुदाय, विनियम्य-नियमनं कृत्वा। ३. वही, ६।३५ अभ्यासेन तु कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते ॥ भाष्य
किंतु 'अभ्यासेन तु'-अभ्यासो नाम चित्तभूमी कस्यांचित् समानप्रत्ययावृत्तिः चित्तस्य । वैराग्यं नाम दृष्टादृष्टेष्टभोगेषु दोषदर्शनाभ्यासाद् बैतृष्ण्यं तेन च वैराग्येण गृह्यते विक्षेपरूपः प्रचार: चित्तस्य । एवं तद्
मनो गृह्यते निगृह्यते निरुध्यते इत्यर्थः।। ४. भगवई, १३६१२६: पुदिव भंते ! मणे ?. मणिज्जमाणे मणे? मणसमय
वीतिक्कते मणे? गोयमा ! नो पुव्विं मणे, मणिज्जमाणे
मणे, नो मणसमयवीतिक्कते मणे । ५. उत्तरज्झयणाणि, २६५४,५७ : मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ ।
मणसमाहारणयाए णं एगग्गं जणयइ ।
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