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________________ जैन साहित्य में चैतन्य- केन्द्र और हठयोग में चक्रों के लिए कमल शब्द की प्रकल्पना मिलती है। यहां कमलशब्द का उल्लेख नहीं है, किन्तु आदि शब्द के द्वारा उसका निर्देश स्वतः प्राप्त हो जाता है | आचार्य नेमिचन्द्र ने गुणप्रत्यय अवधिज्ञान को शंख आदि चिह्नों से उत्पन्न होने वाला बतलाया है' । टीकाकार ने आदि शब्द की व्याख्या में पद्म, वज्र, स्वस्तिक, मत्स्य, कलश आदि शब्दों का निर्देश दिया है। जैन साहित्य में अष्ट मंगल की मान्यता प्रचलित है'। अनुमान किया जा सकता है कि अवधिज्ञान के शरीरगत चिह्नों और अष्ट मंगलों में कोई सामञ्जस्य का सूत्र रहा हो । श्रीवत्स आदि शुभ संस्थान वाले चैतन्य- केन्द्र मनुष्य और पशु के नाभि के ऊपर के भाग में होते हैं । वीरसेन आचार्य का मत है कि शुभ संस्थान वाले चैतन्य- केन्द्र नीचे के भाग में नहीं होते । नाभि से नीचे होने वाले चैतन्य- केन्द्रों के संस्थान अशुभ होते हैं, गिरगिट आदि अशुभ आकार वाले होते हैं । आचार्य वीरसेन के अनुसार इस विषय का षट्खंडागम में सूत्र नहीं है, किन्तु यह विषय उन्हें गुरु-परम्परा से उपलब्ध है । " चैतन्य- केन्द्रों के संस्थानों में परिवर्तन भी हो सकता है । सम्यक्त्व उपलब्ध १. गोमटसार, जीवकाण्ड, गा० ३७१ : भवपच्चइगो सुरणिरयाणं, तित्थेवि सव्व अंगुत्थो । गुणपच्चइगो णरतिरियाणं संखादिचिण्हभवो ॥ २ . वही, टीका : नाभेरुपरि शङ्खपद्मवज्रस्वस्तिकझषकलशादि शुभ चिह्नलक्षितात्मप्रदेशस्थावधिज्ञानावरणवीर्यान्तरायकर्मद्वयक्षयोपशमोत्पन्नमित्यर्थः । ३. ओवाइयं, सूत्र ६४ : अट्ठ मंगलया पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्टिया तं जहा- सोवत्थियसिरिवच्छ-गंदियावत्त- वद्धमाणग-भद्दासण- कलस-मच्छ-दप्पणया । ४. षट्खंडागम, पुस्तक १३, पृ० २६७ : एदाणि संठाणाणि तिरिक्ख- मणुस्साणं नाहीए उवरिमभागे होंति, ter; सुहठाणामधोभागेण सह विरोहादो । ५. वही, पुस्तक १३ पृ० २६८ तिरिक्खमणुसविहंगणाणीणं नाहीए हेट्ठा मरडादि असुहसंठाणाणि होंति त्ति गुरुवदेसो, ण सुत्तमत्थि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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