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११० मनन और मूल्यांकन
उक्त विवरण से दो प्रकार की प्रज्ञा फलित होती है— इन्द्रिय-संबद्ध - प्रज्ञा और इन्द्रियातीत प्रज्ञा | धवलाकार ने प्रज्ञा और ज्ञान का भेद बतलाया है । उनके अनुसार गुरु के उपदेश से निरपेक्ष ज्ञान की हेतुभूत चैतन्य शक्ति का नाम प्रज्ञा है और ज्ञान उसका कार्य है' । इससे स्पष्ट होता है कि प्रज्ञा शास्त्रीय ज्ञान से उपलब्ध नहीं होती । वह चेतना का शास्त्र-निरपेक्ष विकास है ।
जैन साहित्य में अनेक लब्धियां या ऋद्धियां वर्णित हैं। महर्षि पतंजलि की भाषा में उन्हें योगविभूति कहा जा सकता है । उन लब्धियों में एक लब्धि है-प्रज्ञाश्रमण । प्रज्ञाश्रमण मुनि अध्ययन किए बिना ही सर्वश्रुत का पारगामी होता है । वह चतुर्दशपूर्वी के प्रश्नों का भी समाधान दे सकता है। इस प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि के चार प्रकार किये गए हैं- औत्पत्तिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा । • नंदी सूत्र में आभिनिबोधिक ज्ञान के दो प्रकार बतलाए हैं— श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित । श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान अध्ययन से प्राप्त होता है । अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान अध्ययन-निरपेक्ष होता है । यह प्रज्ञा है । तिलोयपण्णत्ती में प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि के जो चार प्रकार बतलाएं है, नंदी सूत्र में आभिनिबधिक ज्ञान के वे ही चार प्रकार- ( औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी) निर्दिष्ट हैं। यहां इन्हें बुद्धि कहा गया है । प्रज्ञा और बुद्धि - दोनों शब्द सामान्य ज्ञान के अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं और सर्वसाधारण में मिलते हैं । किन्तु यहां अन्तरंग बुद्धि और अन्तरंग प्रज्ञा का निर्देश है। ये दोनों विशिष्ट विकास वालों में ही उपलब्ध होती हैं । अदृष्ट, अश्रुत, और अनालोचित अर्थ जैसे ही सामने आता है वैसे ही उसका यथार्थ बोध हो जाता है । वह औत्पत्तिकी प्रज्ञा है । हरिभद्रसूरी ने इसे प्रातिभज्ञान कहा है और उपाध्याय यशोविजय ने मतिज्ञान और केवलज्ञान के बीच का ज्ञान कहा है । विनय द्वारा प्राप्त अनुग्रह से वैनयिकी, कर्म के सुदीर्घावलोकन से होने वाली कर्मजा और वयपरिपाक से परिणत होने वाली पारिणामिकी प्रज्ञा भी शास्त्राभ्यास से निरपेक्ष होती है ।
'मंत्रराजरहस्य' में 'प्रज्ञश्रमण' का उल्लेख मिलता है । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र की वृत्ति में प्राज्ञश्रमण की व्याख्या की है । धवला में प्रज्ञाश्रमण को
१. धवला ६४, १; १८।६४।२ ।
२. तिलोयपण्णत्ती ४।१०१७ - २१ ।
३. नंदी, सूत्र ३७, ३८ ।
४. मंत्रराज रहस्य, श्लोक ५२२, सूरिमंत्रकल्पसमुच्चय भाग १, पृ० ६३ | ५. योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति, सूरिमंत्रकल्पसमुच्चय भाग २, पृ० ३६५ ।
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