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________________ विभूतिपाद ७१ निर्मल होती है उतनी ही आन्तरिक चेतना विकसित होती जाती है । यह प्रज्ञा के आलोक की जो बात बतलाई है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है । प्रज्ञा का आलोक उतना ही होगा जितनी संयम की भूमिका होगी। जिस प्रकार की संयम की भूमिका होगी उसी प्रकार की प्रज्ञा होगी। इसमें एक निश्चित क्रम है, छलांग नहीं होगी । संयम की पहली भूमिका सिद्ध होगी तो प्रज्ञा का प्रथम रूप विकसित होगा । अब ऐसा नहीं होता कि संयम की पांचवीं भूमिका पर कोई सीधा ही चला गया । उसको क्रमशः साधना पड़ेगा । उसकी दूसरी, तीसरी, चौथी भूमिका आएगी, क्रमिक भूमिका का विकास होगा और क्रमिक ही प्रज्ञा का विकास होगा । सातवें और आठवें सूत्र में अन्तरंग और बहिरंग की चर्चा है, क्योंकि धारणा, ध्यान और समाधि-- ये सब साधन हैं । वास्तव में यह पाद साधन-पाद का ही परिशेष है । यह वर्गीकरण कैसे किया गया, मुझे तो आश्चर्य होता है। यह सारा साधन - पाद में ही जाना चाहिए था । वास्तव में यह द्वितीय पाद का परिशेष ही है । इस प्रसंग में बहिरंग और अन्तरंग की चर्चा थी । अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार - ये पांच बहिरंग हैं और तीन-धारणा, ध्यान और समाधि - ये तीन अन्तरंग हैं । यह एक वर्गीकरण है। दूसरा वर्गीकरण यह भी है— निर्बीज समाधि की दृष्टि से धारणा, ध्यान और समाधि भी बहिरंग हैं। उसका कारण है कि जहां निर्बीज समाधि उपलब्ध होती है वहां फिर कोई साधन नहीं रहता । साधन समाप्त हो जाते हैं। इसलिए यह धारणा, ध्यान और समाधि, उसकी तुलना में, बहिरंग ही बन जाते हैं । धर्म साधना काल में धर्म होता है और स्वभाव में जाकर स्वभाव बन जाता है । साधनाकाल में अहिंसा, संयम, तप – ये सारे साधन हैं किन्तु सिद्धिकाल में ये ही स्वभाव बन जाते हैं । दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः दर्शन, ज्ञान और चारित्र – ये साधन हैं साधना काल में । सिद्धि-काल में ये आत्मा के स्वभाव हैं । साधन वही होता है जो स्वभाव होता है और साधन जब अपना कार्य कर चुकता है तब साधन समाप्त हो जाता है और वह स्वभाव में बदल जाता है। इसलिए परम समाधि या निर्बीज समाधि या जैन भाषा में क्षायिकभाव में साधन समाप्त हो जाते हैं । फिर साधन की कोई जरूरत नहीं होती । वे स्वभाव बन जाते हैं । इसलिए सारे के सारे बहिरंग होते हैं । अन्तरंग तो कोरा स्वभाव होता है । साधन जितना भी है, वह सारा बहिरंग ही होगा, बाहर से स्वीकृत होगा, अपनाया गया होगा । अपनाया गया है, इसलिए वह साधन होता है और वह सारा बहिरंग होता है । इस दृष्टि से यह सही है कि क्षायोपशमिक भाव तक सारा साधन बहिरंग होता है, क्षायिकभाव में जब जाते हैं तो फिर साधन स्वभाव में बदल जाते हैं । वे कभी समाप्त नहीं होते । किन्तु आज इस अन्तरंग और बहिरंग की चर्चा को स्पष्ट समझने में ही हमें कठिनाई हो रही है । प्रत्याहार को क्यों बहिरंग माना जाए ? प्रत्याहार तो बहुत आन्तरिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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