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७२ मनन और मूल्यांकन
किया है । परन्तु यही बात जैनों की तपस्या की पद्धति में मिलती है । प्रतिसंलीनता की बाह्य तप माना गया है । प्रतिसंलीनता बाह्य तप है और अन्तरंग तप शुरू होता है— प्रायचित्त से । उसमें ध्यान, समाधि, व्युत्सर्ग आदि सारे आ जाते हैं । यह कठिनाई वहां भी है । यही प्रश्न वहां है । प्रतिसंलीनता को बाह्य क्यों माना गया ? प्रत्याहार को बहिरंग क्यों माना गया ? एक बात तो मुझे लगती हैं कि धारणा से जो क्रम शुरू होता है उसका सम्बन्ध शरीर के साथ जुड़ जाता है । प्रतिसंलीनता और प्रत्याहार का भी शरीर के साथ कम सम्बन्ध नहीं है । इस दृष्टि से विचार करें तो मुझे लगता है कि प्रत्याहार की प्रक्रिया भी स्पष्ट नहीं है और जो पतंजलि का प्रत्याहार का सूत्र है उसकी व्याख्या भी स्पष्ट नहीं है । इन्द्रियों को अपने विषय से हटा लेना यदि इतना ही प्रत्याहार हो तो त्वचा के प्रत्याहार की बात समझ में ही नहीं आती, और भी इन्द्रियों के प्रत्याहार की बात समझ में नहीं आती। इसलिए धारणा और ध्यान का अभ्यास करने वाले मिलेंगे किन्तु प्रत्याहार की साधना करने वाले साधक नहीं मिलेंगे । पता ही नहीं है इस क्रम का कि कैसे साधना की जाती है ? प्रत्याहार की भी अपनी एक साधना होती हैं। पूरी प्रक्रिया है प्रत्याहार की साधना की । किसी भी जैन व्यक्ति से पूछा जाए 1 किं इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता और योग प्रतिसंलीनता कैसे की जाती है ? तो वे बता नहीं पाएंगे। उन्हें ज्ञात ही नहीं है । प्रतिसंलीनता का कोरा तात्त्विक रूप हमारे सामने है, किन्तु उसका साधनात्मक पहलू हमारे सामने स्पष्ट नहीं है । यहीं कठिनाई जैन-साधना पद्धति की है और यही कठिनाई योगदर्शन की है। योगदर्शन की भी बौद्धिक व्याख्याएं तो हैं किन्तु उसका साधना का पक्ष आज भी रहस्यमय है । वह उपलब्ध नहीं है । उसकी चाबियां हाथ में नहीं हैं। प्रतिसंलीनता और प्रत्याहार इनको बहिरंग मानने का अधिक-से-अधिक बौद्धिक या अनुभूतिगम्य कारण यही हो सकता है कि वह पृष्ठभूमि है और धारणा से मूल क्रम शुरू होता है। योग तब सधता है, ध्यान तब होता है जब ध्याता जितेन्द्रिय होता है । जितेन्द्रिय होना यह तो ध्यान की पृष्ठिभूमि में आ गया। ध्यान की अर्हता बन गई । ध्यान का अर्ह कौन हो सकता है ? ध्यान की योग्यता किस व्यक्ति में मानी जा सकती है ? इसकी कसौटी है कि साधक को कम-से-कम जितेन्द्रिय होना चाहिए। इसका मतलब है कि ध्यान से जितेन्द्रियता नहीं आई, ध्यान से पहले ही जितेन्द्रिय होना आवश्यक हो गया । इतनी साधना तो ध्यान से पूर्व ही आ जाए कि जिसमें जितेन्द्रियता निष्पन्न हो जाए। इस पृष्ठभूमि की बात को या पृष्ठभूमि पर होने वाली प्रवृत्ति को अलग रखकर इसे बहिरंग मान लिया । अन्यथा प्रत्याहार को बहिरंग मानने का कोई कारण नहीं है । यह तो सचमुच आंतरिक प्रक्रिया है । मैं जहां तक समझ पाया हूं प्रत्याहार का अर्थ - प्राण- समाहार। हमारी सारी प्रवृत्ति होती है— प्राण-नियोजन के द्वारा ।
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