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________________ ७० मनन और मूल्यांकन का ज्ञान न हो तो प्रज्ञा का कोई अर्थ नहीं होता, कोई प्रयोग भी नहीं होता। प्रज्ञा का आलोक आन्तरिक चेतना का आलोक या अध्यात्म का आलोक है। यह संयम के द्वारा ही उपलब्ध होता है। यह किसी अध्ययन से उपलब्ध नहीं होता। यह नितान्त संयम से उपलब्ध होने वाली चेतना है। इसलिए इन चारों सूत्रों के पश्चात् परिणाम यह बताया कि संयम के अभ्यास से प्रज्ञा का आलोक मिलता है। ___अब प्रश्न होता है कि कितनी प्रज्ञा ? प्रज्ञा की भी मर्यादा है। इसकी भी क्रमिक विकास की सीमाएं हैं। अगले सूत्र में बतलाया गया-'तस्य भूमिषु विनियोगः-प्रज्ञा का पृथक्-पृथक् भूमियों में विनियोग होता है। प्रज्ञा की सात भूमिकाएं बतलाई हैं। दूसरे पाद में यह कहा गया है कि जितना संयम, सधता है उतनी प्रज्ञा जागती है। प्रज्ञा और संयम दोनों का विकास साथ-साथ चलता है। प्रथम कोटि का संयम, प्रथम कोटि की प्रज्ञा । द्वितीय भूमिका का संयम तो द्वितीय भूमिका की प्रज्ञा। संयम के साथ-साथ प्रज्ञा का विकास होता है। मन.पर्यवज्ञान कब हो सकता है ? अवधिज्ञान कब हो सकता है ? अलग-अलग संयम की भूमिकाएं हैं । संयम का जितना विकास हो सकता है, उस पर प्रज्ञा का जागरण निर्भर है। अप्रमत्त संयम का विकास हो गया तो पर-चित्तज्ञान या मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होगा। यदि अप्रमत्त संयम की भूमिका नहीं है तो पर-चित्तज्ञान नहीं हो सकता। छठे गुणस्थान तक की भूमिका प्रमत्त संयमी की भूमिका है। उसमें पर-चित्तज्ञान नहीं हो सकता। अप्रमत्त संयमी की भूमिका में, उस विशिष्ट संयम में, मनःपर्यवज्ञान का विकास होता है। अतीन्द्रिय ज्ञान का सारा विकास संयम के विकास के साथ-साथ चलता है। कैवल्य कब होता है ? अवधिज्ञान कब होता है ? मन पर्यव ज्ञान कब होता है ? और अवधिज्ञान की विशिष्ट भूमिकाएं-देशावधि, सर्वावधि कब होती हैं ? इन सबका संयम के साथ संबंध है। संयम की साधना जितनी अप्रमत्त होती है, जितनी आन्तरिक जागरूकता बढ़ती जाती है उतना ही आंतरिक चेतना का विकास होता जाता है, आन्तरिक चेतना जागती जाती है। इसका कारण भी है कि बुद्धि तक का ज्ञान हमारे मस्तिष्क के साथ जुड़ा हुआ है। इसलिए स्मृति, कल्पना और चिंतन के साथ इसका सम्बन्ध है। बुद्धि से परे का जो ज्ञान है उसका इस मस्तिष्क के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका सम्बन्ध जुड़ जाता है-तैजस शरीर के साथ यानि लेश्या के साथ, लेश्या के परिणामों के साथ । संयम जितना विकसित होता है, लेश्या जितनी शुद्ध होती है उतना ही आन्तरिक ज्ञान विकसित होता जाता है । लेश्या विशुद्ध हुई, जाति-स्मृति ज्ञान पैदा हो गया। यह जाति-स्मृति एक विभूति, एक ऋद्धि है। लेश्या विशुद्ध हुई, अवधिज्ञान पैदा हुआ। इन सबका सम्बन्ध लेश्या के साथ जुड़ जाता है, सूक्ष्म-शरीर की चेतना के साथ जुड़ जाता है । सूक्ष्म-शरीर के साथ जो चेतना काम करती है, लेश्या जितनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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