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________________ आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (१) ३७ जगत्, सृष्टि का कर्तृत्व, विभिन्न दर्शन-आदि दार्शनिक तथ्यों की चर्चा क्यों है ? हम इस सचाई को न भूलें कि दर्शन और आचार दो नहीं हैं। वास्तव में वे एक ही हैं। प्रश्न पूछा गया-ज्ञान का सार क्या है ? नियुक्तिकार ने कहा-णाणस्स सारं आयारो-ज्ञान का सार है-आचार। जैसे दूध और घी को सर्वथा भिन्न नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों में तादात्म्य है, इसी प्रकार ज्ञान और आचार को सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता। कोरा आचार वस्तुतः आचार नहीं होता और कोरा ज्ञान वस्तुतः ज्ञान नहीं होता। पहले दृष्टि-दर्शन होता है और फिर उससे फलित होता है-आचार । अन्यथा न दर्शन दर्शन रहता है और न आचार आचार । यदि दर्शन की पृष्ठभूमि न हो तो आचार होता ही नहीं। दर्शन की निष्पत्ति है-आचार । दर्शन की सार्थकता है—आचार । आचार की स्वीकृति दर्शन से होती है, इसलिए दोनों को सर्वथा पृथक् नहीं मान सकते। प्रस्तुत आगम का प्रारम्भ वाक्य है-बुज्झज्ज। इसका अर्थ है-जानो। यदि जानोगे नहीं तो आचार का निर्धारण कैसे होगा। इस शब्द की विस्तृत व्याख्या दशकालिक सूत्र (४-श्लोक १०) में उपलब्ध होती है। वहां का वाक्य है—किंवा नाहिइ छेय पावगं—जो ज्ञानी नहीं है वह कैसे जानेगा कि श्रेय क्या है, अश्रेय क्या है ? पुण्य क्या है, पाप क्या है ? इसको नहीं जानने वाला आचारशास्त्र का अध्ययन नहीं कर सकता। जीवन में दो ही बातें होती हैं--श्रेय या अश्रेय । इसी के आधार पर व्यवहार को अच्छा-बुरा कहा जाता है। इसका अध्ययन ही आचार-शास्त्र का विषय है और यही आचार-शास्त्र है। प्रस्तुत आगम में श्रेय और अश्रेय का अध्ययन किया गया है। जीवन के लिए श्रेय क्या है ? अश्रेय क्या है ? कल्याण क्या है ? अकल्याण क्या है ? कल्याण और श्रेय में बाधक तत्त्व कौन-से हैं? इनका अध्ययन होने के कारण सूत्रकृतांग आचार-शास्त्र है। पहले जानो, फिर आचरण करो। ज्ञान के बाद आचार है। आचार ज्ञानशून्य नहीं होना चाहिए। 'आचारः प्रथमो धर्मः'- यह वाक्य बहु-प्रचलित है। यह पूर्ण सचाई को अभिव्यक्त नहीं करता। वास्तविक सूत्र यह हो—ज्ञानं प्रथमो धर्मः, आचारः द्वितीयो धर्मः-ज्ञान पहला धर्म है और आचार दूसरा धर्म है। आचार पहला धर्म बन जाए तो पहले भी कुछ नहीं, बाद में भी कुछ नहीं। फिर तो एक अज्ञानी मनुष्य का सारा आचरण धर्म बन जाएगा। धर्म-अधर्म, नैतिकअनैतिक, श्रेय-अश्रेय- इनमें तब भेद-रेखा खींच पाना सम्भव नहीं होगा क्योंकि इनके बीच भेद-रेखा खींचने वाला तत्त्व है-ज्ञान। ज्ञान ही आचार-शास्त्र की मर्यादा का निर्धारण कर सकता है। पहला धर्म है-ज्ञान । पहला निर्देश है-'बुज्झज्ज'-जानो। प्रश्न होता है कि जानना किसलिए? यहां जानना केवल जानने के लिए नहीं, ज्ञान केवल ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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