SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार-संहिता की पृष्ठभूमि ५ आत्मा पुद्गल को प्रभावित कर सकती है और न पुद्गल आत्मा को प्रभावित कर सकता है। तीसरी बात है-कर्म। कर्म पुद्गल है । आत्मा और कर्म का सम्बन्ध है। आत्मा और पुद्गल का सम्बन्ध है । आत्मा पुद्गल को प्रभावित करती है और पुद्गल आत्मा को प्रभावित करता है। आत्मा और पुद्गल का सम्बन्ध होता है । सम्बन्ध का हेतु है-क्रिया। यह चौथी बात है। सम्बन्ध क्रिया और प्रकृति के द्वारा स्थापित होता है । अक्रिय अवस्था में कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता । जैसे-जैसे कषाय क्षीण होते हैं, कषाय का संवरण होता है, आत्मा शुद्ध होता है, अक्रिया आती है तब पुद्गल और आत्मा का सम्बन्ध क्षीण होने लगता है। जब पूर्ण अक्रिया की स्थिति घटित होती है तब सारे सम्बन्ध क्षीण हो जाते हैं । ___आत्मा आत्मा है और पुद्गल पुद्गल । अस्तित्व दोनों का है। दोनों का अस्तित्व रहता है, पर सम्बन्ध नहीं रहता। वह क्रिया की स्थिति में ही होता है। अक्रिया की स्थिति में वह सेतु टूट जाता है। इस प्रकार ये चार वाद-आत्मबाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावादफलित होते हैं। अब 'सोऽहं!' 'मैं वह हूं'---यह प्रत्यभिज्ञा होती है, अस्तित्व की स्मृति होती है, तब आत्मा पुष्ट होता है और ये चार वाद इसके आधार बन जाते हैं। समूचे आचार के आधारभूत तत्व ये चार बाद हैं। पर्याय दो प्रकार के होते हैं-स्वाभाविक पर्याय और सापेक्षिक या सांयोगिक पर्याय । स्वाभाविक पर्याय प्रत्येक में होते हैं। मूर्त में भी होते हैं और अमूर्त में भी होते हैं। सापेक्षिक या सांयोगिक पर्याय केवल जीव और पुद्गल में ही होते हैं। ये व्यंजन पर्याय हैं, स्थूल पर्याय हैं । ये ही परिवर्तन के हेतुभूत हैं । अन्य चार द्रव्योंधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल- इनमें ये व्यञ्जन पर्याय नहीं होते। केवल स्वाभाविक पर्याय ही होते हैं। पुद्गल के योग से आत्मा अनेक रूप लेती है-कभी कुछ बन जाती है, कभी कुछ बन जाती है। आत्मा के योग से पुद्गल विशेष प्रकार के रूप लेते हैं। जीव और पुद्गल के व्यञ्जन पर्याय ही हमारे सामने आते हैं। उन पर्यायों के कारण ही जीव का नाना गतियों में अनुसंचरण होता है। यहां अस्तित्व की बात नहीं, शुद्ध आत्मा की बात नहीं की गई है। आत्मा का स्वरूप क्या है-यह इसका प्रतिपाद्य नहीं है। इसका प्रतिपाद्य यह है कि जो संसार मे भ्रमण कर रहा है, वह क्या है ? जो अनुसंचरण कर रहा है वह चैतन्य की शुद्ध सत्ता नहीं है । शुद्ध सत्ता अभी तक बनी नहीं है । वह अशुद्ध है । यह आत्मा और पुद्गल की सांयोगिक दशा है। इसीलिए यह अनुसंचरण हो रहा है। 'सोऽहं' 'सोऽहं' की प्रत्यभिज्ञा में शुद्ध सत्ता की स्मृति नहीं है। मैं वह हूं जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy