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________________ ४ मनन और मूल्यांका हैं। जैसे ही आत्मा है, मैं हं, मैं चैतन्य हूं, मैं पहले भी था और बाद में भी होऊंगायह स्पष्ट हो जाता है तो उसके साथ अनेक समस्याएं समाहित हो जाती हैं। दूसरी बात है-मैं अनुसंचरण करने वाला हूं, इस संसार-चक्र में भ्रमण करने वाला हूं। मैं पहले अमुक-अमुक था। बाद में अमुक-अमुफ होऊंगा। यह जो अमुक-अमुक रूपों में परिवर्तन होता है, वह सब कर्मों के कारण होता है। इस स्थिति में दूसरा प्रश्न उभरता है कि कर्म का बंध क्यों होता है ? प्राणी कर्म क्यों करता है ? - कर्म का बंध इसलिए होता है कि मैं अक्रिय नहीं हूं। मुझमें क्रिया है । अकरिस्सं चहं, कारवेसुं चहं, करो यावि समणुण्णे भविस्सामि--- मैंने क्रिया की थी, करवाई थी। मैं क्रिया करता हूं, करवाता हूं और करने वाले का अनुमोदन करता हैं। मैं क्रिया करूंगा, करवाऊंगा और करने वाले का अनुमोदन करूंगा। मुझमें क्रिया है, क्योंकि कषाय है। क्रिया है, इसलिए आस्रव हैं। बाहर से मैं कुछ खींचता हूं, आकर्षित करता हूं। वे निजातीय तत्त्व मुझे प्रभावित करते हैं, मैं उनसे प्रभावित होता हूं और उनके प्रभाव से बंध जाता हूँ। उनके द्वारा बंधा हुआ हूं, इसलिए उनके द्वारा संचालित होता हूं। मैं बार-बार जन्म-मरण की यात्रा करता हूँ, अनुसंचरण करता हूं और नाना योनियों में परिभ्रमण करता हूं। ___ आत्मा है-यह स्पष्ट हो जाने पर कर्म है, क्रिया है, अनुसंचरण है, पुनर्जन्म और पूर्वजन्म है ये सब स्पष्ट हो जाते हैं। भगवान् महावीर ने मूलतः जिन तत्त्वों का प्रतिपादन किया उनकी सम्यक् जानकारी प्रारभ के आत्मसूत्र में हमें प्राप्त हो जाती है। इससे आगे का.एक सूत्र है-से आयावाई, लोयावाई, कम्मावाई, किरियावाई-जो अनुसंचरण को जान लेता है वह आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है। सबसे पहला है-आत्मवाद । आत्मा ज्ञात हो जाने पर यह ज्ञात हो जाता है -लोक है। लोक का अर्थ है-पुद्गल । पुद्गल दृश्य है । लोक्यते इति लोकःजो दृष्ट होता है, वह लोक है। पुद्गल देखा जाता है, इसलिए उसे लोक कहा गया है। शेष द्रव्य दृष्ट नहीं होते। जो आत्मा को जान लेता हैं, वह पुद्गल को जान नेता है । जो आत्मवादी है, वह लोकवादी है। वह आत्मा और पुद्गल, चेतन और अचेतन--दोनों को जान लेता है। निष्कर्ष यह निकला कि केवल चेतन ही नहीं है। यदि केवल चेतन ही होता तो परिभ्रमण का कोई कारण ही नहीं होता। केवल पुद्गल ही होता तो भी परिभ्रमण का कोई प्रश्न नहीं उठता। दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। आत्मा भी है और पुद्गल भी है। आत्मवाद और लोकवाद--इन दो वादों की स्थापना हो गई। आत्मा भी हो और पुद्गल भी हो, किन्तु यदि उनमें कोई सम्बन्ध न हो तो न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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