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________________ विभूतिपाद ७७ प्राण-साधना से उपलब्ध जितनी सिद्धियां हैं वे समाधि के विघ्न हो सकती हैं । प्राण, उदान, समान के जय से होने वाली जो सिद्धियां हैं वे सारी विघ्न बन सकती हैं । दो-तीन प्रकार के परिणाम होते हैं। पतंजलि ने दो प्रकार के परिणामों की चर्चा की है – अभिभव और प्रादुर्भाव । तीन प्रकार की परिणाम-धारा होती हैहीयमान, वर्द्धमान और अवस्थित । हीयमान परिणाम होता है जो अभिभव है । एक वर्द्धमान होता है जो प्रादुर्भूत होता है, बढ़ता है और एक अवस्थित होता है । इनके साथ-साथ तुलना करने पर बहुत सारी नयी संभावनाएं और नयी बातें हमें उपलब्ध हो सकती हैं। सामान्य दृष्टि से इस विभूतिपाद का संक्षिप्त सा अवलोकन किया गया कि विभूतिपाद पढ़ने वाले विद्यार्थी को इसकी पृष्ठभूमि में कितना जान लेना चाहिए । पृष्ठभूमि जान लेने पर अगला अध्ययन सहज, सरल हो जाता है। मुझे एक ही बात प्रतीत होती है- वह है परिभाषा की जटिलता । मैं यह नहीं कहता कि पतंजलि ने कोई जटिल परिभाषाएं की हैं। यह किसी का सवाल नहीं, पतंजलि ar नहीं और किसी का नहीं, यह मूल भाषा का प्रश्न है । आज से २००० वर्ष पूर्व जिन लोगों ने जो सच्चाइयां समझीं, उन्होंने बहुत सरल भाषा में प्रस्तुत कीं, किन्तु आज वे हमारे लिए बहुत गूढ़ बन गई, क्योंकि हमारा उस समय के भाषा-प्रवाह के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहा और उन परिभाषाओं के साथ में सम्बन्ध नहीं रहा । उन परिभाषाओं के नीचे जो सम्बन्ध तैर रहा है, हम उन परिभाषाओं के पकड़ने में अपने आपको असमर्थ पा रहे हैं । आज सबसे बड़ा जो काम करना है वह यह है कि सत्य को परिभाषाओं की कारा से मुक्त किया जाए। हठयोग में स्रावों का बहुत वर्णन है । हमारे शरीर में स्राव होते हैं । जैसे चन्द्रमा से अमृत झर रहा है, सिर से अमृत झर रहा है, यह कहा जाता रहा है । आज जब ग्रंथि - तंत्र को पढ़ते हैं कि अमुक हारमोन्स, अन्तःस्राविग्रंथियों का स्राव अमुक-अमुक स्थितियों को प्रभावित करता है । अगर परिभाषाओं को हम छोड़ दें, इन दोनों को देखें तो प्रतीत होगा कि दोनों सच्चाइयां एक हैं। यदि हम अध्ययन के द्वारा ऐसी क्षमता का विकास कर सकें कि जिससे परिभाषाओं में क्या है, उसमें न उलझें किन्तु उनके नीचे क्या है, वहां तक पहुंच सकें । ऐसी स्थिति में बहुत सच्चाइयां उपलब्ध हो जाएंगी। मैं अध्ययन का एक ही अर्थ मानता हूं, जो विद्यार्थी हैं, अध्ययन करने वाले हैं, उनकी चेतना जागे या उसे जगाने में हम निमित्त बन सकें और इस प्रज्ञा को जगा सकें कि शब्दों, भाषा और परिभाषा के नीचे जो कुछ छिपा पड़ा है, आवृत है, उसे अनावृत करने में वे सक्षम हों, तो मैं समझता हूं. अध्ययन की बहुत बड़ी सार्थकता होगी। ( पातंजल योगदर्शन के आधार पर - दूसरा प्रवचन - लाडनूं 8-२-८० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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