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________________ १२ मनन और मूल्यांकन उत्तर : वहां स्थूल वायु नहीं है, किन्तु सूक्ष्म वायु है। दूसरी बात यह है कि इम जो श्वास लेते हैं वह वास्तविक वायु नहीं है, औपचारिक है। भगवती सूत्र में इसकी बहुत स्पष्ट चर्चा है। वहां प्रश्न उठाया गया है कि हम वायुकाय का श्वास लेते हैं, पर वायुकाय किसका श्वास लेगा? फिर दूसरा वायुकाय किसका श्वास लेगा? यहां अनवस्था दोष आ जाएगा। इसके उत्तर में कहा गया--हम जो श्वास लेते हैं वह वायुकाय सजीव नहीं है, किन्तु सूक्ष्म पुद्गल हैं । वे वायु की तरह सूक्ष्म हैं। उपचार से उन सूक्ष्म पुद्गलों को वायु कह दिया गया। छहों जीव-निकाय श्वास लेते हैं, आनापान लेते हैं। इसका स्फुट वर्णन वहां प्रस्तुत है। ___ सात पृथ्वियां हैं। आठवीं पृथ्वी है-सिद्ध शिला । आठों पृथ्वियों में जीव हैं। सूक्ष्म जीव सर्वत्र व्याप्त है। स्थूल जीव इस लोक के एक भाग में हैं, सर्वत्र नहीं। ऐसे स्थान भी हो सकते हैं, जहां प्राणवायु न हो, श्वास के लिए उपयुक्त वायु न हो। वहां स्थूल जीव नहीं हो सकते, फिर चाहे वह पृथ्वी हो या चन्द्रलोक हो। चन्द्रलोक या दूसरे विमानों का जो वर्णन प्राप्त है वे सब सचित्त पृथ्वी के बने हुए हैं। कुछ पृथ्वीकायिक निर्जीव भी होते हैं। जो वैमानिक देवों के विमान हैं, वहां जो वृक्ष और पर्वत हैं, वे सारे निर्जीव हैं। वे वृक्ष भी पृथ्वीकायिक हैं, मिट्टी के बने कुएं हैं। तैजसकाय भी दोनों प्रकार का है--सचित्त तैजसकाय और अचित्त तैजसकाय । पांचों ही स्थावर सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार के होते हैं। वे मिश्र भी होते हैं। मान लें कि पृथ्वी का कोई खण्ड है, सहज ही वे जीव वहां से च्युत हो सकते हैं, अपनी मौत मर सकते हैं । ऐसा भी होता है कि पृथ्वी है, लेकिन वहां जीव उत्पन्न न हो। केवल परमाणु एकत्रित हो जाएं। ऐसे ही पानी भी सचित्त और अचित्त दोनों होता है। एक तालाब पानी से भरा हुआ है। सब जीव वहां से च्युत हो गए तो वह अचित्त हो जाता है। जीवों के च्युत होने पर भी अचित्त हो जाता है तथा जीव पैदा न हों तो भी अचित्त हो जाता है । नारकीय अग्नि अचित्त होती है। जो गुण सचित्त अग्नि में होते हैं, वे ही गुण अचित्त अग्नि में भी होते हैं। प्रश्न : सचित्त और अचित्त की पहचान कैसे हो सकती है ? उत्तर : पहचान की बात बहुत सूक्ष्म है। प्रत्यक्षज्ञानी इसे स्पष्ट पहचान लेता है। तर्क के द्वारा यह जानना सम्भव नहीं है कि यह सचित्त है या अचित्त । एक प्रसंग है- भगवान् महावीर सिन्धु सौवीर देश को जा रहे थे। साथ में सैकड़ों श्रमण थे। रास्ते में पानी का अभाव था। अनेक मुनि पानी के अभाव में कालकवलित हो गए। रास्ते में एक जलाशय आया। पानी अचित्त था, निर्जीव था। पानी पीने का प्रसंग आया। भगवान् महावीर ने अनुमति नहीं दी। वे प्रत्यक्षज्ञानी थे। वे तो जानते थे कि पूरा तालाब अचित्त है। पर अल्पज्ञानी कैसे जानते । फिर तो यही व्यवहार चल पड़ता कि तालाब का पानी पीया जा सकता है। यद्यपि सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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