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नमस्कार महामंत्र का मल स्रोत और कर्त्ता १०७
सिद्ध बनते हैं। अतः व्यवहार के धरातल पर धर्म के आदिकर या महास्रोत होने के कारण जितना महत्त्व अर्हत् का है उतना सिद्ध का नहीं। प्रथम पद में अर्हत शब्द के द्वारा केवल तीर्थकर ही विवक्षित हैं, अन्य केवली या अर्हत् विवक्षित नहीं हैं। यदि नैश्चयिक दृष्टि की बात होती तो सामान्य केवली या सामान्य अर्हत् को पांचवें पद में सब साधुओं की श्रेणी में नहीं रखा जाता। आचार्य और उपाध्याय तीसरे-चौथे पद में हैं और केवली पांचवें पद में। इसका व्यावहारिक हेतु उपयोगिता ही है। ___यह प्रश्न किया गया कि आचार्य अर्हत के भी ज्ञापक होते हैं, इसलिए णमो आयरियाणं' यह प्रथम पद होना चाहिए। इसके उत्तर में नियुक्तिकार ने कहा'आचार्य अर्हत् की परिषद् होते हैं । कोई भी व्यक्ति परिषद् को प्रणाम कर राजा को प्रणाम नहीं करता। अर्हत् और सिद्ध दोनों तुल्य-बल हैं, इसलिए उनमें पौर्वापर्य का विचार किया जा सकता है, किन्तु परमनायक अर्हत् और परिषत्कल्प आचार्य में पौर्वापर्य का विचार नहीं किया जा सकता।
नमस्कार महामंत्र का महत्त्व
प्रस्तुत महामन्त्र समग्र जैन शासन में समान रूप से प्रतिष्ठा प्राप्त है। यही इसकी प्राचीनता का हेतु है। यदि यह श्वेताम्बर और दिगम्बर का अन्तर होने के बाद निर्मित होता तो संभव है कि समग्र जैन शासन में इसे इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती। किसी एक सम्प्रदाय में इसका महत्त्व होता, दूसरे में इतना महत्त्व नहीं होता। यह मन्त्राधिराज के रूप में प्रतिष्ठित नहीं होता। लगभग डेढ़ हजार वर्ष की अवधि में इस महामन्त्र पर विपुल साहित्य रचा गया। इसके सहारे अनेक मन्त्रों का विकास हुआ और इसकी स्तुति में अनेक काव्य रचे गए। यह जैनत्व का प्रतीक बना हुआ है। 'जो जैन होता है वह कम-से-कम महामन्त्र का अवश्य पाठ करता है। वह कैसा जैन जो महामन्त्र को नहीं जानता ?जो नमस्कार महामन्त्र को धारण करता है वह श्रावक है। उसे परमबन्धु मानना चाहिए।" इस उक्ति से हम नमस्कार महामन्त्र की व्यापकता का मूल्यांकन कर सकते हैं ?
१. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १०२२ ।
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