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१०६ मनन और मूल्यांकन
किये गए हैं। उत्तरपक्ष का तर्क बहुत शक्तिशाली नहीं है, फिर भी इस प्रसंग द्विपक्षीय चिन्तन की सूचना अवश्य मिल जाती है । कर्त्ता की अपनी-अपनी अपेक्षा होती है । जिस समय अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय का महत्त्व बढ़ गया था समय महामन्त्र के कर्त्ता उनको स्वतन्त्र स्थान कैसे नहीं देते ?
नमस्कार महामन्त्र के पदों का क्रम
नमस्कार महामन्त्र के पदों का क्रम भी चर्चित रहा है। क्रम दो प्रकार का होता है— पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी । पूर्व पक्ष का कहना है कि नमस्कार महामन्त्र में ये दोनों प्रकार के क्रम नहीं हैं । यदि पूर्वानुपूर्वी क्रम हो तो णमो सिद्धाणं', ' णमो अरहंताणं' ऐसा होना चाहिए। यदि पश्चानुपूर्वी क्रम हो तो ' णमो लोए सव्व साहूणं - यहां से वह प्रारम्भ होना चाहिए और उसके अन्त में ' णमो सिद्धाणं' होना चाहिए। उत्तर पक्ष का प्रतिपादन यह रहा कि नमस्कार महामन्त्र का क्रम पूर्वानुपूर्वी ही है। इसमें क्रम का व्यत्यय नहीं है । इस क्रम की पुष्टि के लिए नियुक्तिकार ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि सिद्ध अर्हत् के उपदेश से ही जाने जाते हैं । वे ज्ञापक होने के कारण हमारे अधिक निकट हैं, अधिक पूजनीय हैं, अतः उनको प्रथम स्थान दिया गया । आचार्य मलयगिरि ने एक तर्क और प्रस्तुत किया कि अर्हत् और सिद्ध की कृतकृत्यता में दीर्घकाल का व्यवधान नहीं है। उनकी कृतकृत्यता प्रायः समान ही है । आत्म विकास की दृष्टि से देखा जाए तो अर्हत् और सिद्ध में कोई अन्तर नहीं होता । आत्म-विकास में बाधा डालने वाले चार घात्य कर्म ही हैं। उनके क्षीण होने पर आत्म-स्वरूप पूर्ण विकसित हो जाता है । विकास का एक अंश भी न्यून नहीं रहता । केवल भग्राही कर्म शेष रहने के कारण अर्हत् शरीर को धारण किए रहते हैं । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अर्हत् से सिद्ध बड़े हैं । नैश्चयिक दृष्टि से बड़े-छोटे का कोई प्रश्न ही नहीं है । यह प्रश्न मात्र व्यावहारिक है । व्यवहार के स्तर पर अर्हत् का प्रथम स्थान अधिक उचित है । अर्हत् या तीर्थंकर धर्म के आदिकर होते हैं । धर्म का स्रोत उन्हीं से निकलता है । उसी में निष्णात होकर अनेक व्यक्तिः
१. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा १०२०, मलयगिरिवृत्ति पत्र ५५२-५५३ । २. वही, गाथा १०२१ :
पुव्वाणुपुवि न कमो नेव य पच्छानुपुव्वि एस भवे । सिद्धाईआ पढमा बीआए साहुणो आई ||
३. वही, गाथा १०२२:
अरिहंतु एसेणं सिद्धा नज्जति तेण अरिहाई |
४. वही, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ५५३ ।
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