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________________ नमस्कार महामंत्र का मूल स्रोत और कर्त्ता १०५ नमस्कार महामन्त्र के पद कुछ आचार्यों ने नमस्कार महामंत्र को अनादि बतलाया है । यह श्रद्धा का अतिरेक ही प्रतीत होता है । तत्त्व या अर्थ की दृष्टि से कुछ भी अनादि हो सकता है । उस दृष्टि से द्वादशांग गणिपिटक भी अनादि है, किन्तु शब्द या भाषा की दृष्टि से द्वादशांग गणिपिटक भी अनादि नहीं है, फिर नमस्कार महामंत्र अनादि कैसे हो सकता है ? हम इस बात को भूल जाते हैं कि जैन आचार्यों ने वेदों की अपौरुषेयता का इसी आधार पर निरसन किया था कि कोई भी शब्दमय ग्रन्थ अपौरुषेय नहीं हो सकता, अनादि नहीं हो सकता । जो वाङ् मय है वह मनुष्य के प्रयत्न से ही होता है। और जो प्रयत्नजन्य होता है वह अनादि नहीं हो सकता। नमस्कार महामंत्र वाङ् मय है । इसे हम यदि अनादि मानें तो वेदों के अपौरुषेयत्व और अनादित्व के निरसन का कोई अर्थ ही नहीं रहता । नमस्कार महामन्त्र जिस रूप में आज उपलब्ध है उसी रूप में भगवान् महावीर के समय में या उनसे पूर्व पार्श्व आदि तीर्थंकरों के समय में उपलब्ध था या नहीं, इस पर निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता, फिर भी इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भगवान् महावीर के समय में 'नमो सिद्धाणंयह पद प्रचलित रहा हो, और फिर आवश्यक की रचना के समय उसके पांच पद किये गए हों । भगवान् महावीर के समय में आचार्य और उपाध्याय की व्यवस्था नहीं मिलती। उसका विकास उनके निर्वाण के बाद हुआ है और संभव है कि 'नमो आयरियाणं' 'नमो उवज्झायाणं' ये पद उसी समय नमस्कार मन्त्र के साथ जुड़े हों । नमस्कार महामन्त्र के पदों को लेकर जो चर्चा प्रारम्भ हुई थी, उससे इस बात की सूचना मिलती है। चर्चा का एक पक्ष यह था कि नमस्कार महामंत्र संक्षिप्त और विस्तार - दोनों दृष्टियों से ठीक नहीं है । यदि इसका संक्षिप्त रूप हो तो ' णमो सिद्धाणं' 'णमो लोए सव्वसाहूणं' - ये दो ही पद होने चाहिए। यदि इसका विस्तृत रूप हो तो इसके अनेक पद होने चाहिएं। जैसे- नमो केवलीणं, नमो सुय केवलीणं, नमो ओहिनाणीणं, नमो मणपज्जवनाणीण, आदि-आदि । दूसरे पक्ष का चिंतन यह था कि अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय नियमतः साधु होते हैं, किंतु साधु नियमतः अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय नहीं होते। कुछेक साधु अर्हत् आदि होते हैं । साधु को नमस्कार करने में वह फल प्राप्त नहीं होता जो अर्हत् को नमस्कार करने में होता है । इस दृष्टि से नमस्कार महामंत्र के पांच पद ९. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा १०२० : अरिहंताई नियमा साहू साहू य तेसु भइयव्वा । तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्तं हवइ सिद्धो ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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