________________
आत्मा का अस्तित्व १२७
आन्तरिक ज्ञान नहीं हो सकता। तर्क का ज्ञान 'मैं' के स्वरूप का वास्तविक ज्ञान नहीं दे सकता। इसलिए आत्मा का अस्तित्व प्रत्ययात्मक है, वस्तुरूप नहीं है। फिर भी व्यावहारिक जगत् में आत्मा का शाश्वत और अभौतिक अस्तित्व मानना आवश्यक है। उसके आधार पर ही नैतिक नियम बन सकते हैं।
बर्कले (अंग्रेज दार्शनिक, ई० १६८५-१७५३) देकार्ट के तर्क का समर्थन करता है और चिन्तन के आधार पर आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करता है। उसके अनुसार आत्मा अभेद्य, अरूपी, अनाकार और पूर्ण शुद्ध है।
विलियम्स जेम्स (अमेरिकन मनोवैज्ञानिक दार्शनिक, ई० १८४२-१९१०) ने कहा-हमारे तर्क आत्मा के नास्तित्व को सिद्ध करने में असफल रहे हैं। ___ आत्मा के विषय में अनेक दार्शनिकों के अभिमतों की समीक्षा करने पर निष्कर्ष के रूप में दो शब्द उभर आते हैं-प्रत्यक्ष ज्ञान और तर्क । आत्मा के अस्तित्व का स्वीकार और अस्वीकार-दोनों ही अधिकांशतया तर्क के आधार पर चल रहे हैं। इसलिए आत्मा की स्वीकृति भी आनुमानिक स्वीकृति है और अस्वीकृति का मूल्य प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर अर्थहीन हो जाता है। अणुवीक्षण के द्वारा परमाणु की संरचना का साक्षात् होने हर आनुमानिक संरचना का स्वरूप ही बदल गया । आत्मा के सूक्ष्म स्वरूप का प्रत्यक्ष बोध होने पर भी ऐसा ही होता है । आत्मा अमूर्त होने पर इन्द्रियग्राह्य नहीं है-भगवान् महावीर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कर आत्मा के अस्तित्व को तर्कातीत घोषित किया था। परोक्ष ज्ञान की परिक्रमा करने वाले लोग प्रत्यक्षज्ञान की अपेक्षा तर्क में ही अधिक विश्वास करते हैं और इसे अनुचित भी नहीं कहा जा सकता। प्रत्यक्ष ज्ञान स्वसंवेद्य होता है। दूसरे के लिए परोक्ष ज्ञान ही उपयोगी बनता है। इसलिए सूक्ष्म या स्थूल, अमूर्त या मूर्त किसी भी द्रव्य के अस्तित्व या नास्तित्व का समर्थन तर्क के द्वारा करने की परंपरा चल रही है। सूक्ष्म और अमूर्त पदार्थ के अस्तित्व या नास्तित्व की स्वीकृति या अस्वीकृति प्रत्यक्ष ज्ञान की सीमा में है, यह जानते हुए भी उसे परोक्ष की सीमा से परे नहीं रखा जा सकता । दर्शन के क्षेत्र में तर्क का एक लम्बा जाल बिछा हुआ है। प्रत्यक्ष का कोई जाल नहीं होता। साक्षात्कार होते ही संदेह एक क्षण में समाप्त हो जाता है। विस्तार परोक्ष में ही हो सकता है। पक्ष की स्थापना, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन-ये सब परोक्ष की भूमिका में ही होते हैं। उनके द्वारा चर्चा लम्बी हो जाती है। भारतीय और पश्चिमी दर्शनों ने आत्मा के पक्ष और प्रतिपक्ष में जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, उन सबका पुनर्मूल्यांकन करना इस युग की एक अपेक्षा बन गयी है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org