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योगदर्शन का हृदय
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युज् धातु समाधि के अर्थ में है । 'युज' नर् योगे — इस धातु का अर्थ है— जोड़ना । समाधि का अर्थ इससे निष्पन्न नहीं होता । किन्तु योग का यह अर्थ भी चल पड़ा । योग का अध्यात्मस्पर्शी या भावनास्पर्शी जो अर्थ है, वह है-समाधि । यही इसका मूल अर्थ है । समाधि अर्थात् योग और योग अर्थात् समाधि | योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यह भी कहा जा सकता है, और समाधिश्चित्तवृत्तिनिरोधः – यह भी कहा जा सकता है । दोनों में कोई अन्तर नहीं है । धीरे-धीरे समाधि शब्द छूटता गया और योग शब्द अधिक व्यवहृत होता गया । प्राचीन समय में भावनायोग, संवरयोग आदि शब्द प्रचलित थे, किन्तु 'योग' शब्द स्वतंत्र रूप में इस अर्थ में प्रचलित नहीं था। जैनों ने इस अर्थ में योग शब्द का प्रचलन नहीं किया, इसका कारण यह था कि जैन - परम्परा में 'योग' शब्द का प्रसिद्ध अर्थ है - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति । इन तीनों प्रकार की प्रवृत्तियों का संग्राहक शब्द है— योग | यह शब्द वहां प्रवृत्ति वाचक है और समाधि के अर्थ में प्रयुक्त योग शब्द निवृत्ति वाचक है ।
जैन- साधना-पद्धति में 'अयोग' शब्द प्रचलित है । जैसे-जैसे साधना आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे अयोग की अवस्था प्राप्त होती जाती है। पतंजलि का 'योग' और जैन-साधना-पद्धति का 'अयोग' – ये दोनों एक अर्थ में चलते हैं । साधना की विकसित अवस्था में समाधि, समाधान, समाहित – इन शब्दों का अधिक प्रयोग मिलेगा । जैसे-जैसे पतंजलि के योग की दिशा में विकास करते हैं वैसे-वैसे जैनसाधना-पद्धति के ' अयोग' की साधना में विकास करते हैं। योग शब्द समाधि ही अर्थ देता है ।
साधना का पहला बिन्दु है - समाधि का अनुभव, समाधि को उपलब्ध होना । परंतु प्रश्न यह है कि समाधि की उपलब्धि कब हो सकती है ? मनुष्य वृत्तियों के साथ जीता है । उसका सारा व्यवहार प्रतिक्रिया के साथ चलता है । वृत्ति और प्रतिक्रिया -- इन दोनों में कोई अर्थभेद नहीं है । जितनी वृत्तियां हैं, वे सब प्रतिक्रियाएं हैं । क्रिया है अपना स्वतंत्र अस्तित्व, स्वतंत्र अनुभव । स्वरूपानुभव—यह है क्रिया । वृत्ति - संवलित आचरण है— प्रतिक्रिया । वृत्तियों से प्रभावित सारा आचरण प्रतिक्रिया है । प्रतिक्रिया की निवृत्ति से ही समाधि का प्रारंभ होता है । प्रतिक्रिया का जीवन असमाधि का जीवन है । पतंजलि ने पहले सूत्र में ही यह स्पष्ट निर्देश दे दिया कि चित्त की वृत्तियों का निरोध योग हैं, समाधि है । हमारा समूचा जीवन वृत्तियों का जीवन है और है ही क्या ? एक चक्र है। एक वृत्ति नीचे जाती है, दूसरी ऊपर आ जाती है । एक वृत्ति गौण होती है, दूसरी मुख्य बन जाती है । जो मुख्य है वह गौण और जो गौण है वह मुख्य —— यह चक्र निरंतर चलता रहता है । कभी बंद नहीं होता । जैन आचार्यों ने इसे बहुत स्पष्ट किया है, संसारी आत्मा इस शरीर में निरन्तर घूमती रहती है, चक्राकार घूमती रहती है । खिचड़ी जब पकाई जाती है तब उसमें चावल
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