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१२२ मनन और मूल्यांकन
और असहिष्णुता-यह अज्ञान है। ज्ञान पदार्थ-विषयक और आत्म-विषयकदोनों प्रकार का होता है। प्रस्तुत प्रकरण में आत्म-विषयक बोध को ही ज्ञान माना गया है। ज्ञान और तप से पवित मनुष्य ईश्वरभाव को उपलब्ध हो जाते हैं। यह ज्ञान परमात्मविषयक ज्ञान है । इन्द्रिय और प्राणवायु के सब कर्म की आत्म-संयमरूपी योगाग्नि में आहुति दी जाती है, वह योगाग्नि ज्ञान से दीप्त होती है। यह ज्ञान विवेकज ज्ञान है। द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेय है। यह ज्ञान मोक्ष साधन विषयक है। कहीं-कहीं शास्त्र से होने वाले अवबोध को भी ज्ञान कहा गया है । ज्ञान की उत्तरवर्ती अवस्था विज्ञान है । विज्ञान का अर्थ है-स्वानुभव' । जैन साहित्य में प्रतिपादित है-श्रवण से ज्ञान और ज्ञान से विज्ञान होता है। सर्व प्रथम सुना जाता है, फिर जाना जाता है । तत्पश्चात् उसका अनुभव किया जाता
- ज्ञान के विषय में हमारी दृष्टि साफ नहीं होती। हम संहारक अस्त्रों का निर्माण करने वाली मति को भी ज्ञान मानते हैं और मोज्ञ-साधक मति को भी ज्ञान मानते हैं। इसलिए कहां किस अर्थ में ज्ञान का प्रयोग हुआ है, इसका विवेक अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा जगत् की सबसे बड़ी समस्या है कि पदार्थ-विषयक शान से चरित्र और अनुशासन के विकास की अपेक्षा की जा रही है। यह अपेक्षा
१. गीता, १३।११ : अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं, तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।। भाष्य
अज्ञानं यद् अतः अस्माद यथोक्ताद् अन्यथा विपर्ययेण मानित्वं दम्भित्वं हिंसा अक्षान्तिः अनार्जवम् इत्यादि
अज्ञानम्। २. वही, ४।१०:. बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः । भाष्य--
ज्ञानम्-परमात्मविषयम् । ३. वही, ४।२७ : जुह्वति ज्ञानदीपिते । भाष्य-स्नेहेन इव प्रदीपिते
विवेकविज्ञानेन उज्ज्वलभावं आपादिते..।' ४. वही, ४१३३ : श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञान्ज्ञानयज्ञः परंतप !
भाष्य-ज्ञाने-मोक्षसाधने । ५. वही, ४।२८ : भाष्य-ज्ञानं- शास्त्रार्थपरिज्ञानं ।
६।४६: भाष्य-ज्ञान-शास्त्रपाण्डित्यं..। ६. वही, ७२ : भाष्य-संविज्ञान विज्ञानं विज्ञानसहितं स्वानुभवसंयुक्तम् । ७. ठाणं, ३॥४१८: किंफला पज्जुवासणया? सवणफला। से णं भंते ! सवणे
किंफले? णाणफले। से गं भंते ! णाणे किंफले ? विण्णाणफले।...
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