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जैन साहित्य के आलोक में गीता का अध्ययन १२१
का संबंध है वह इन्द्रियातीत है ।
उक्त विवरण से दो प्रकार की प्रज्ञा फलित होती है— इन्द्रियसंबद्ध प्रज्ञा और इन्द्रियातीत प्रज्ञा | धवलाकार ने प्रज्ञा और ज्ञान का भेद बतलाया है। उनके अनुसार गुरु के उपदेश से निरपेक्ष ज्ञान की हेतुभूत चैतन्य शक्ति का नाम प्रज्ञा है और ज्ञान उसका कार्य है'। इससे स्पष्ट होता है कि प्रज्ञा शास्त्रीय ज्ञान से उपलब्ध नहीं होती । वह चेतना का शास्त्र-निरपेक्ष विकास है ।
चेतना का छठा स्तर है - द्रष्टाभाव । एक व्यक्ति ने कन्फ्यूशियस से पूछा"मैं साधना करना चाहता हूं, क्या करूं ?” कन्फ्यूशियस ने उत्तर दिया"केवल सुनो, केवल देखो ।" गीता का दर्शन है - योगी का कर्म केवल शरीर, केवल मन, केवल बुद्धि और केवल इन्द्रियों के द्वारा होता है । उसमें ममत्त्व नहीं होता, प्रिय अप्रिय का संवेदन नहीं होता'। जहां राग-द्वेष की धारा प्रवाहित होती है वहां इन्द्रिय, मन और बुद्धि की चेतना मात्र द्रष्टा नहीं होती, वह फल या बंध की कर्त्ता बन जाती है ।
जैन दर्शन का चिन्तन है— इन्द्रियों के विषयों को नहीं रोका जा सकता । उनके प्रति होने वाले राग-द्वेष या प्रिय-अप्रिय संवेदन को रोका जा सकता है । द्रष्टा चेतना का अर्थ है - स्वाभाविक चेतना या शुद्ध चेतना । चेतना अपने स्वरूप में शुद्ध ही होती है । राग-द्वेष के सम्मोह से समूढ़ होकर वह कर्म-बंध की कर्त्ता या अकेवल बन जाती है ।
ज्ञान और विज्ञान
गीता में ज्ञान और विज्ञान के विषय में बहुत स्पष्ट दृष्टिकोण मिलता है। ज्ञान अज्ञान से आवृत है । प्रश्न होता है - अज्ञान क्या है ? ज्ञान क्या है ? गीताकार का समाधान है मृदुता, ऋजुता, अहिंसा, शान्ति यह ज्ञान है । मान, माया, हिंसा
१. धवला, ६३४, ११८१८४, २
२. गीता, ५।११ : कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥
३. आचारचूला, १५।७२-७६
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ण सक्का ण सोउं सद्दा, सोयविसयमागता । णो सक्का रूवमदठ्ठे, चक्खुविसयमागयं... | णो सक्का ण गंधमग्घाउं, णासाविसयमागयं । जो सक्का रसमणासाउं, जीहाविसयमागयं णो सक्का ण संवेदेउं, फासविसयमागयं । रागदोसा उजे तत्थ, ते भिक्खु परिवज्जए ।
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