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________________ 5. योगदर्शन का हृदय एक है समाधि की धारा और दूसरी है असमाधि की धारा ।असमाधि की धारा में चित्त को समाधान नहीं मिलता, जिज्ञासा को समाधान नहीं मिलता। ज्ञानात्मक, सुखात्मक और जागृतिमूलक समाधान नहीं मिलता। व्यक्ति जानना चाहता है, उसमें जिज्ञासा होती है, किन्तु ज्ञान का आवरण है, उसे समाधान नहीं मिलता। व्यक्ति-आनन्द में रहना चाहता है, सुख चाहता है, दुःख नहीं चाहता, किन्तु मूर्छा या मोह का एक ऐसा सघन वलय है कि उसे आनन्द की अनुभूति नहीं होती, सुख का अनुभव नहीं होता। व्यक्ति शक्ति-संपन्न होना चाहता है किन्तु एक ऐसी बाधा है जो उसे शक्ति-संपन्न होने नहीं देती। ये सारे विघ्न असमाधि के घटक हैं। ज्ञानावरण के कारण ज्ञान की समाधि में विघ्न, मूर्छा के कारण सुख या आनन्द में विघ्न और अन्तराय के कारण शक्ति में विघ्न होता है। इस स्थिति में ज्ञान की समाधि नहीं होती, आनन्द की समाधि उपलब्ध नहीं होती और शक्ति का समाधान भी नहीं मिलता। इस असमाधि की स्थति ने एक नयी दिशा का उद्घाटन किया। मनुष्य ने समाधि की खोज प्रारंभ की। विपरीत दिशा की खोज सदा ही चरमबिन्दु से प्रारंभ होती है। जब मनुष्य असमाधि के चरम-बिन्दु पर पहुंचा तब उसे दिशा परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत हुई। संसार में कोई भी दिशा ऐसी नहीं है, जिसकी विरोधी दिशा न हो। एक ही दिशा हो, यह जगत् का नियम नहीं है। जगत् का अटल नियम है-दो विरोधी दिशाओं का होना। दो दिशाओं के होने का अर्थ है-एक दिशा के विपरीत दिशा का होना । विपरीत दिशा न हो तो एक का अस्तित्व नहीं हो सकता। यदि हो भी तो हम नहीं जान सकते । हम किसी भी पदार्थ का अस्तित्व जानते हैं तो वह उसके विरोधी पदार्थ के कारण जानते हैं। सत् वह है जिसका प्रतिपक्ष विद्यमान हो। जिसका प्रतिपक्ष नहीं है, वह सत् नहीं हो सकता। यह विपरीत दिशा का नियम शाश्वत नियम है। इसका कोई अपवाद नहीं है। किन्तु विपरीत दिशा की खोज तब होती है जब एक दिशा का बिन्दु बहुत उभर जाता है। जब असमाधि का बिन्दु प्रस्फुट हो गया, आदमी वहां तक पहुंच गया तब उसे समाधि के बिन्दु को खोजने की आवश्यकता प्रतीत हुई। उसने खोज प्रारंभ कर दी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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