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________________ २० मनन और मूल्यांकन अनुमतिपूर्वक सचित्त जल ग्रहण करना भी अदत्तादान है। फिर प्रश्न उठा कि व्यक्ति की आज्ञा से लिया जाने वाला जल अदत्तादान कैसे हो सकता है ? पथिक की आज्ञा या अन्य किसी व्यक्ति की आज्ञा ले लेने पर अदनादान कैसे हो सकता हैं ? उस समय इन्द्रावग्रह आदि अनेक प्रकार के अवग्रह प्रचलित थे। अवग्रह ले लेने पर चोरी कैसे ? इसका उत्तर था-तुमने कुएं के स्वामी या पथिक से अनुमति ली, किन्तु जल के जीवों की अनुमति नहीं ली कि हम तुम्हें पीना चाहते हैं। जल के जीव अपने शरीर के स्वयं स्वामी हैं, कुएं का मालिक या अन्य कोई भी उनका स्वामी नहीं हो सकता। अतः उनकी अनुमति के बिना उनकी हिंसा करना अदत्तादान है। उस समय के संन्यासियों और अनगारों की जल-ग्रहण सम्बन्धी विविध मर्यादाएं थीं। कुछ कहते-जल-ग्रहण की हमारी एक सीमा है । हम परिमाण के साथ सजीव जल लेते हैं । हम छना हुआ सजीव जल लेते हैं। कुछ कहते-हम केवल पीने के लिए सजीव जल ले सकते हैं। कुछ कहते-हम पीने और स्नान आदि करने के लिए सजीव जल ले सकते हैं। उस समय विभिन्न मान्यताएं प्रचलित थीं। इन सबका वर्णन जैन आगम 'औपपातिक' में विस्तार से प्राप्त होता है। पानी कव लेना चाहिए, कितना लेना चाहिए-इसका स्पष्ट वर्णन वहां प्राप्त है। सूत्रकार ने प्रस्तुत प्रसंग में इन मान्यताओं का संकेत इन शब्दों में दिया है-कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए (१-५६)। - तीसरा तत्त्व है-तैजसकाय। अग्नि भी जीव है। जो अग्नि के जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपने अस्तित्व को अस्वीकार करता है। 'दीर्घलोक' यह अग्नि का द्योतक शब्द है। यह सबसे बड़ा लोक है। यह सब पर हावी होने वाला लोक है। यह अत्यन्त व्यापक है। सबसे बड़ा जगत् है वनस्पति का । अग्नि वनस्पति का शस्त्र है। वनस्पति की हिंसा अग्नि से होती है। अतः यह दीर्घलोक है । ये स्थावर जीव परस्पर एक-दूसरे के शस्त्र बनते हैं। जल अग्नि का शस्त्र है। अग्नि पृथ्वी और वनस्पति के लिए शस्त्र बनती है। अग्नि दीर्घलोकशस्त्र है जे दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे। जे असत्थस्स खेयण्णे, से दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे ॥ (१-६७) । ----जो अग्नि-शस्त्र को जानता है, वह अशस्त्र को जान लेता है। जो अशस्त्र को जानता है, वह अग्नि-शस्त्र को जान लेता है। जो यह जान लेता है कि अग्निशस्त्र है, वह यह भी जान लेता है कि अग्नि की हिंसा कैसे नहीं हो सकती। ___ अग्नि जीव है; इस निरूपण में भूतवाद की चर्चा पुनः प्राप्त होती है । अग्नि भूत नहीं, स्वयं जीव है। जीव-निकायों का क्रम इस प्रकार है-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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