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आचार का पहला सूत्र १६
जीव के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। आत्मौपम्य की बात यहां इतनी गहराई से कही गई है कि जहां तुम्हारी आत्मा है, वहां जल के जीव की आत्मा है । आत्माआत्मा में कोई अन्तर नहीं है। यदि कोई जल की आत्मा को अस्वीकार करता है तो वह स्वयं की आत्मा को अस्वीकार करता है। अपनी आत्मा को अस्वीकार करके ही कोई जल की आत्मा को अस्वीकार कर सकता है। गहराई में उतरो और अपनी आत्मा का अनुभव करो, साक्षात् करो। जब अपनी आत्मा का अनुभव हो जाएगा तब जल की आत्मा का अनुभव हो जाएगा। जिसे जल की आत्मा का अनुभव हो जाएगा, उसे अपनी आत्मा का भी अनुभव हो जाएगा। आत्मा की इतनी एकात्मकता है, इतना अद्वैत है कि एक आत्मा का सही अनुभव होने पर सभी आत्माओं का अनुभव हो जाता है। बुद्धि के स्तर पर आत्मा को मानना एक बात है और अनुभव के स्तर पर उसे जानना एक बात है। एक जीव का अनुभव करो, सब जीवों का अनुभव हो जाएगा। यह उस ज्ञान के स्तर की बात नहीं है जिस स्तर पर मानव की चेतना अस्तित्व को साक्षात् जान लेती है। जब एक को साक्षात् जान लेती है तो दूसरे को भी साक्षात् जान लेती है। - इस प्रसंग के पश्चात् अहिंसा का सामान्य आलापक सूत्र प्रस्तुत होता है और उसमें कई नयी जानकारियां भी हैं। .. अणगाराणं उदय-जीवा वियाहिया-इस आलापक के तीन अर्थ किए जा सकते हैं --१. अनगारों ने जल में जीव बतलाए हैं, २. अनगारों के लिए जल में जीव बतलाए हैं और ३. अनगार दर्शन में जल स्वयं जीव रूप में निरूपित है। जल में जीव हैं, इसलिए जल में शस्त्र को देखो। जल जीवों के लिए जो शस्त्र बनता है उसका भी तुम विवेक करो और देखो कि उन जीवों के लिए कौन-कौन से शस्त्र बनते हैं।
'अनगार' शब्द जैन मुनियों के लिए तो व्यवहृत होता ही है, अन्यतीथिक मुनियों के लिए भी वह व्यवहृत है । अणगारामोत्ति एगे पवयमाणा (१-४१)-जो भी गृहत्यागी होते थे, वे अणगार कहलाते थे। यह ऋषि-मुनियों और संन्यासियों के लिए व्यवहृत होने वाला सर्व-सामान्य शब्द था । अनगारों के लिए बताया गया कि जल में जीव होते हैं। अतः उनके लिए कुछ मर्यादाएं निर्धारित की। उन्हें बताया कि जल के जीवों के अनेक शस्त्र हैं--पुढो सत्यं पवेइयं (१-५७)। उस समय की एक चर्चा का और उल्लेख है कि कुछ अनगार जल लेते थे, पर वे बिना आज्ञा के नहीं लेते थे। जैसे विहार करते समय रास्ते में नदी आ गई, कुआं आ गया और यदि पानी पीना होता तो वे अनगार स्वयं जल नहीं लेते; किन्तु साथ में चलने वाले व्यक्ति या कोई पथिक से अनुमति लेकर जल ग्रहण कर लेते, पी लेते। उनका यह तर्क था-हमने कोई चोरी नहीं की है, हमने स्वकृतिपूर्वक जल पीया है। जैन श्रमण इसके प्रत्युत्तर में तर्क देते-अदुवा अदिण्णादाणं (१-५८)
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