________________
१८ मनन और मूल्यांकन
तत्त्व है-जल । जल भी स्वयं जीव है।
प्रश्न होता है कि जल के जीवों के लक्षण क्या हैं ? उत्तर में कहा गया-यदि तुम्हें किसी तर्क या हेतु से पता न चले कि जल में जीव हैं तो आज्ञा से जान लो कि जल में जीव हैं। यहां यह स्पष्ट है कि समझ के दो प्रकार हैं—एक है स्वयं का ज्ञान, दूसरा है-आज्ञा-अतीन्द्रियज्ञान सम्पन्न व्यक्ति का ज्ञान । आज्ञा का अर्थ है-आगम, अतीन्द्रियज्ञान, आप्त पुरुष का ज्ञान, साक्षात् द्रष्टा का ज्ञान । 'जल में जीव हैं-इसे तुम स्वयं न जान सको तो आज्ञा से उसे जान लो, अतीन्द्रिय ज्ञानी से पूछकर जान लो और फिर अकुतोभयं (१-३८)-उन जीवों को अभय प्रदान करो, उन्हें भय उत्पन्न मत करो। क्या जल के जीवों में भी भय होता है ? जल के जीवों में आहार, भय, मैथुन, क्रोध, मान, माया-ये सारी संज्ञाएं होती हैं। वनस्पति के विषय में आज बहुत खोजें हो चुकी हैं। वनस्पति के जीव कितने भयभीत होते हैं- इस विषय में अनेक प्रयोग किये गए। एक व्यक्ति ने एक पौधे को कष्ट पहुंचाया। कुछ समय बाद एक वैज्ञानिक ने उस व्यक्ति को पुनः उसी पौधे के पास भेजा। जैसे ही वह व्यक्ति वहां पहुंचा, पौधा भय से कांपने लगा। ग्राफ बदल गया। वैज्ञानिक ने सोचा, शायद अकेला व्यक्ति था, इसलिए पौधे ने पहचान लिया। फिर उसने पांच व्यक्तियों के साथ उसको भेजा। पांच व्यक्ति गए, तब पौधे में कोई परिवर्तन नहीं आया। ज्यों ही वह गया, पौधा कांपने लगा। वनस्पति के जीव उस व्यक्ति से भयभीत होते हैं जो उन्हें कष्ट पहुंचाता है और उस व्यक्ति से भी डरते हैं जो बुरी भावना लेकर जाता है। वनस्पति में भय संज्ञा होती है, यह आज बहुत स्पष्ट हो चुका है। 'अकुतोभयं'-यह शब्द भी उसी सत्य की ओर संकेत करता है कि जल जीवों में भी भय संज्ञा होती है। भगवान् ने कहा, "किसी भी प्रकार से जल के जीवों को भय मत पहुंचाओ, उन्हें अभय करो, उनके प्रति हिंसा की भावना मत करो।"
फिर प्रश्न होता है कि जल में जीव है-यह कैसे स्वीकार्य हो सकता है ? क्योंकि उसमें जीव का कोई लक्षण प्रकट नहीं है। उत्तर में कहा गया-नेव सयं लोगं अभाइक्खेज्जा......(१-३६) लोक (जीवलोक) का अभ्याख्यान मत करो। जल में जीव हैं-इस सत्य का अपलाप मत करो। जो सचाई है। उसे झुठलाओ मत । जल में जीव होता है-यह एक बात है और जल स्वयं जीव है--यह दूसरी बात है। जल में आगंतुक जीव भी हैं, किन्तु जल स्वयं जीव है। इस सचाई को झुठलाने वाला स्वयं के अस्तित्व को झुठलाता है।
जे लोयं (आउकाइय लोयं) अन्भाइक्खइ, से अत्ताणं अन्भाइक्खइ। जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोयं अन्भाइक्खा ॥ (१-३६)
-जो जल के जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपने अस्तित्व को अस्वीकार करता है। जो अपने अस्तित्व को अस्वीकार करता है वही जल के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org