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४४ मनन और मूल्यांकन
को रोटी मिली। उससे सुख की अनुभूति हुई। पांचों इन्द्रियों के विषय-सेवन से सुख की अनुभूति होती है । कान से प्रिय शब्द सुनना, आंख से सौन्दर्य देखना, नाक से सुगंध लेना, त्वचा से अच्छा स्पर्श करना, जीभ से रस का आस्वादन लेना ---ये सारे सुख की अनुभूति में कारण बनते हैं। पर अध्यात्मवेत्ता कहेगा-वास्तव में भौतिक वस्तुओं से सुख नहीं मिलता। व्यवहार में जीने वाला व्यक्ति इसे झूठ मानेगा। पर जो अनुभूत हो रहा है, जो सुख सहज उपलब्ध है, पौद्गलिक वस्तुओं से जो निष्पादित होता है और जीवन के क्षण-क्षण में जिस सुख का हम अनुभव करते हैं, उसे कैसे झुठलाया जा सकता है ? इस प्रत्यक्ष अनुभूत सुख की विद्यमानता में यह परिकल्पना क्यों की गई कि अरस और अस्पर्श का अनुभव करना, अरूप और अशब्द का अनुभव करना ही वास्तव में सुख है।
दो प्रकार की प्रक्रियाएं हैं । एक है-लाघव की प्रक्रिया और दूसरी हैगौरव की प्रक्रिया । इन्द्रियों का मार्ग लाघव की प्रक्रिया है। पदार्थों में सुख देने की क्षमता है । इन्द्रियां प्राप्त हैं। पदार्थों का उपभोग करो। यद लाघवप्रक्रिया है। ___ इन्द्रियों का नियंत्रण करना, इन्द्रिय-संयम करना, इन्द्रियातीत सुख को उपलब्ध करना----यह गौरव प्रक्रिया है।
प्रश्न होता है कि यह विभाजन क्यों? अनेक दार्शनिकों ने इस प्रश्न पर विमर्श किया और कहा-यदि यह विभाजन न हो तो धर्म, अध्यात्म और नैतिकता-ये सब काल्पनिक तथ्य बन जाएंगे। उनकी यथार्थता समाप्त हो जाएगी, क्योंकि उनका आधार होता है वह सुख, जो इन्द्रियातीत हो, इन्द्रियों द्वारा प्राप्त न हो।
काण्ट ने तीन बातें बताई१. संकल्प की स्वतंत्रता। २. ईश्वरीय-सत्ता। ३. आत्मा की अमरता। नैतिकता के ये तीन आधार बनते है ।
भारतीय दर्शनों में धर्म और अध्यात्म पर जो विचार हुआ, जो प्रेरक तत्त्व और आधार बतलाए, वे शाश्वत हैं। वे दो हैं—अत्राण की अनुभूति और सुखदुःख की नश्वरता। इन दो मूलभूत बातों पर अध्यात्म का विकास हुआ। ___इन्द्रियों से प्राप्त सुख अनैकान्तिक होता है। पदार्थ से सुख मिलता भी है और नहीं भी मिलता। जिसको कभी उनसे सुख मिलता है, उसको कभी उनसे सुख नहीं भी मिलता । यह सुख एकान्तिक नहीं हो सकता। मन स्वस्थ है तो संगीत सुनना सुख देता है। ज्वर है तो वही संगीत दुःख देता है।
इन्द्रियजन्य सुख आत्यन्तिक नहीं होता। एक बार सुख मिला, दूसरी बार
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