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आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (१) ४५
नहीं भी मिलता । तृप्ति हुई, फिर अतृप्ति हो गई । आत्यन्तिक वह होता है जो एक बार तृप्ति देता है और फिर अतृप्ति कभी नहीं होती ।
इस विषय में सांख्य दर्शन ने गहरा चिंतन किया है। उसने बताया- रोटी खाने से कैसा सुख मिलता है ? भूख जठराग्नि की पीड़ा है। यह बीमारी है । बीमारी को मिटाना सुख कैसे ? यह तो बीमारी का उपचारमात्र है। भूख-प्यास मिटाना बीमारी का उपचार है, सुख नहीं ।
मनुष्य भोजन करता है। भूख मिटती है । तृप्ति का अनुभव होता है, परन्तु अतृप्ति का क्षण वहीं से प्रारंभ हो जाता है । यदि उसी क्षण में अतृप्ति प्रारंभ न हो तो वह कभी प्रारंभ नहीं हो सकती । यदि उसी समय भूख लगनी प्रारंभ न हो तो फिर कभी भूख लग ही नहीं सकती। जिस समय मनुष्य जन्म लेता है, उसी क्षण से यदि मृत्यु प्रारंभ न हो तो उसकी मृत्यु कभी नहीं हो सकती । वह अमर बन जाता है । भूख एक ही मिनट में नहीं लगती। जिस क्षण में भूख मिटी, उसी क्षण से भूख प्रारंभ हो जाती है । जब भूख चरम बिन्दु पर पहुंचती है तब हम कहते हैं— भूख लग गई। भूख मिटने या प्यास बुझने का सुख आत्यन्तिक नहीं होता ।
तीसरी बात है कि पदार्थजन्य सुख निर्बाध नहीं है । उसमें अनेक अवरोध हैं, बाधाएं हैं।
वीतराग-चेतना से उपलब्ध सुख अनैकान्तिक, आत्यन्तिक और निर्बाध है, इसी आधार पर अध्यात्म का विकास हुआ, बंधन तोड़ने की प्रेरणा मिली। यह सुख शाश्वत है । इसमें त्राणशक्ति है ।
बंधन के हेतु कौन-कौन से हैं ? मोक्ष के हेतु क्या हैं ? इनको आचार-शास्त्र के संदर्भ में समझना होगा । अन्यथा आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण को नहीं समझा जा
गा।
(सूत्रकृतांग सूत्र के आधार पर - पहला प्रवचन - १ - १ - ७६ लाडनूं)
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