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७. आचार - शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (२)
आचार-शास्त्र के आधारभूत सिद्धांत चार हैं
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१. अत्राण ।
२. अनित्यता ।
३. आत्मा की परिणामि नित्यता ।
४. श्रेय का आचरण तथा अश्रेय से बचाव ।
उनमें अत्राण और अनित्यता की चर्चा पहले की जा चुकी है । आचार - शास्त्र का तीसरा सिद्धान्त है - आत्मा की परिणामि नित्यता । यदि आत्मा न हो तो आचार - शास्त्र का कोई आधार नहीं बनता और आत्मा हो और वह कर्त्ता न हो, उसका स्वतंत्र कर्तृत्व न हो तो आचार - शास्त्र की दिशा भिन्न होगी । आत्मा हो और वह यदि कूटस्थनित्य हो तो भी आचार - शास्त्र की दिशा भिन्न होगी, इसलिए सूत्रकार ने इस प्रसंग पर एक मीमांसा प्रस्तुत की है। उस मीमांसा में दो प्रकार के दर्शन आते हैं। एक है - अनात्मवादी दर्शन और दूसरा है - आत्मवादी दर्शन । सूत्रकार ने सर्वप्रथम पांच महाभूतवादियों का उल्लेख किया है । वे पांच महाभूतों का अस्तित्व स्वीकारते हैं और उन्हीं से आत्मा को उत्पन्न हुआ मानते हैं । वे मानते हैं कि शरीर के विनाश के साथ ही आत्मा का भी नाश हो जाता है ।
पंचमहाभूतवाद के पश्चात् एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद, पंचस्कंधवाद, नियतिवाद, ज्ञानवाद की चर्चाएं प्राप्त हैं। जहां भूतवाद की चर्चा प्राप्त है, वहां आचार- शास्त्र पर इतना गंभीर चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं होती । आत्मा की अनुपस्थिति में जो समाज की उपयोगिता है वही आचार का पर्याप्त आधार है। उससे आगे किसी भी आचारशास्त्रीय नियम -को खोजने की आवश्यकता नहीं है । वर्णित दर्शनों में तज्जीवतच्छरीरवाद, पंचमहाभूतवाद आदि दर्शन अनात्मवादी हैं । ये दर्शन आत्मा की शाश्वत सत्ता को स्वीकार नहीं करते । ये विश्व के आधारभूत तत्त्व के रूप में आत्मा की प्रतिष्ठा नहीं करते । अकारकवाद, एकात्मक — ये आत्मवादी दर्शन हैं । इनके आधार पर
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