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आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्व (२) ४७ भी आचारशास्त्रीय दिशाएं स्पष्ट नहीं होती। __आचार-शास्त्र का मूल आधार है-श्रेय का आचरण और अश्रेय का निरोध । यही इसका स्वरूप है। आचार-शास्त्र कोई तत्त्वविद्या नहीं है। वह जीवन का मूल्य है, आदर्श का अध्ययन है।
जीवन का मूल्य है-श्रेय का आचारण और अश्रेय से बचाव । श्रेय और अश्रेय का उत्पादक' कौन है ?—यह आचार-शास्त्र का ज्वलंत प्रश्न है। क्या मनुष्य श्रेय और अश्रेय का आचरण करने में स्वतंत्र है या परतंत्र ? इन प्रश्नों का उत्तर विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न दृष्टिकोणों से दिया है।
आचार-शास्त्र के तीन सिद्धान्त हैं१. संकल्प की स्वतंत्रता। २. नियतिवाद। ३. आत्म-नियतिवाद।
कुछ दार्शनिक मानते हैं कि मनुष्य कर्म और संकल्प करने में स्वतंत्र है। यूननी दार्शनिकों का यही अभिमत रहा। काण्ट ने आचार-शास्त्र के दो आधार प्रस्तुत किए। उनमें पहला है--संकल्प की स्वतंत्रता। उनका तर्क था कि यदि मनुष्य में संकल्प की स्वतंत्रता न हो तो उससे सदाचार की आशा नहीं की जा सकती। भले-बुरे के लिए उसे उत्तरदायी नही ठहराया जा सकता। फिर उत्तरदायी कोई दूसरा ही होगा।
जो ईश्वरवादी दार्शनिक हैं उनके सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न है। वे मनुष्य के संकल्प की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करते। वे मानते हैं कि मनुष्य जो भी कर्म करता है, प्रवृत्ति करता है, वह सब ईश्वर-प्रेरित होती है। अब प्रश्न आता है कि मनुष्य के कर्म का उत्तरदायी कौन? उसके श्रेय और अश्रेय के प्रति उत्तरदायी कौन ? - पश्चिम के धर्म-प्रधान दार्शनिकों में यह विचार प्रचलित रहा कि ईश्वर ने श्रेय ही उत्पन्न किया था, किन्तु बाद में अश्रेय हो गया । अश्रेय या बुराई है ईश्वरीय आदेशों का अतिक्रमण । ईसाई धर्म में माना गया है कि प्रथम पुरुष आदम ने ईश्वरीय इच्छाओं का अतिक्रमण किया इसलिए अश्रेय उत्पन्न हो गया। 'अश्रेय को ईश्वर ने उत्पन्न किया' यह अभ्युपगम कठिन होता है, इसलिए इसे स्वीकार नहीं किया गया। मनुष्य पहले अच्छा ही था, बाद में वह बुरा बना। वह बुरा इसलिए है कि वह ईश्वरीय आदेशों का अतिक्रमण करता जा रहा है। भारतीय दर्शनों-ईश्वरवादी दर्शनों के सामने भी यह प्रश्न है कि मनुष्य के भले-बुरे आचरण का उत्तरदायी कौन ? कहा गया है-'ईश्वर-प्रेरितो गच्छेत्, स्वर्ग वा नरकं तथा'...। फिर मनुष्य को क्यों उत्तरदायी माना जाए। इस जटिल प्रश्न का समाधान बहुत कठिन है, यदि हम उसके कर्तृत्व की स्वतंत्रता स्वीकार न करें। मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, संकल्प करने में स्वतंत्र है। यदि वह स्वतंत्र है तभी वह श्रेय
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