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विभूतिपाद ७५
जटिल बन गई है । लोग समझने में कठिनाई का अनुभव करते हैं और पढ़ाने वाले समझाने में कठिनाई का अनुभव करते हैं । यदि इस परिणाम की चर्चा को कर्म-ग्रंथ और पांच भावों के संदर्भ में जाना जाए तो बहुत आसान हो जाए। जैन दर्शन में औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक -- इन पांच भावों की जो चर्चा है, वैसी ही चर्चा योगदर्शन में आठवें से पन्द्रहवें सूत्र तक की गयी है । यह परिणामों की चर्चा है, क्योंकि जब विभूतियों का वर्णन करना है तो 'परिणामक्रमान्यत्व' - परिणाम का अन्यत्व होना जरूरी है और परिणाम का अन्यत्व क्यों होगा, यह जानने के लिए परिणामों को जानना जरूरी है । एकाग्रता का परिणाम, निरोध का परिणाम, संस्कार का परिणाम, शांत, उदित — ये सारी कर्म की अवस्थाएं हैं, विपाक की अवस्थाएं हैं। एक जैन इस सारे प्रकरण को यदि पांच भावों के संदर्भ में पढ़े तो बहुत अच्छी तरह समझ सकता है। कर्म-ग्रंथ और पांच भावों को नहीं जानने वाला, दूसरी परम्परा का व्यक्ति, उतनी स्पष्टता के साथ नहीं समझ सकता ।
क्षायिक भाव में सारे परिणाम समाप्त हो जाते हैं, किन्तु क्षायोपशमिक भाव शांत और उदित रहते हैं। एक शांत होता है, दूसरा परिणाम उदय में आ जाता है । दूसरा शांत होता है, पहला उदय में आ जाता है। शांत और उदित का क्रम चलता रहता है। कर्म का उदय भी होता रहता है और कर्म का विपाक शांत भी होता रहता है। पूरी प्रक्रिया चलती है। एक परिणाम, फिर दूसरा परिणाम, फिर तीसरा परिणाम । एक परिणाम बीतता है, फिर दूसरा परिणाम उदय में आ जाता है । कर्म-ग्रंथ को जानने वाला जानता है कि दो विरोधी प्रकृतियां एक साथ उदय में नहीं आतीं । सातवेदनीय और असातावेदनीय, सुख का संवेदन और दुःख का संवेदन- दोनों एक साथ नहीं होते । निद्रा और जागरण — दोनों एक साथ नहीं होते। जितनी विरोधी प्रकृतियां हैं - एक उदय में आती है और दूसरी शांत हो जाती है। क्या जब सुख का संवेदन है तब हम मान लें कि दुःख समाप्त हो गया ? नहीं, दुःख समाप्त नहीं हुआ, किन्तु दुःख अनुदय में चला गया, क्योंकि जब एक प्रकृति उदय में होती है तो फिर दूसरी विरोधी प्रकृति उदय में नहीं आ सकती, गौण हो जाती है, अनुदित हो जाती है, किन्तु संस्कार समाप्त नहीं होता, विपाक उसका समाप्त नहीं होता, बंध समाप्त नहीं होता। परम्परा चलती है । जैसे ही निमित्त बदला वह उदय में आ जाएगी और जो उदय में थी वह शान्तावस्था में चली जाएगी। क्षयोपशम तक यह प्रक्रिया चलती रहती है । हमारे जितने क्षायोपशमिक भाव हैं, उनमें परिणामों की यह धारा चलती रहती है। एक अच्छा विचार आया, बुरा विचार दब गया और बुरा विचार आया तो अच्छा विचार दब गया, यह क्रम निरंतर चलता रहता है । इसीलिए हमारी जागरूकता का प्रयत्न भी निरंतर
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