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________________ ६. विभूतिपाद पातंजल योगदर्शन का तीसरा पाद है-विभूतिपाद। इसमें विभूति का निरूपण किया गया है। वैभव केवल पदार्थ का ही नहीं होता, वह व्यक्ति की आंतरिक शक्तियों का भी होता है। जैन आगमों में दो प्रकार के मनुष्य बतलाये गए हैं-ऋद्धिमान् और अ-ऋद्धिमान् । जिनमें आन्तरिक विशेषताएं जाग जाती हैं, आन्तरिक शक्तियां विकसित हो जाती हैं, ज्ञान की विशेषता और क्रिया की विशेषता पैदा हो जाती है, वे पुरुष ऋद्धिमान् कहलाते हैं। जिनकी आन्तरिक क्षमताएं जागृत नहीं होतीं वे अ-ऋद्धिमान होते हैं। जिस अर्थ में 'ऋद्धि' शब्द का प्रयोग है जैन-साहित्य में, उसी अर्थ में पतंजलि ने 'विभूति' शब्द का प्रयोग किया । आन्तरिक विभूति या ऋद्धि कैसे विकसित होती है, इसकी प्रक्रिया भी जान लेनी जरूरी है। पतंजलि ने योगदर्शन के दूसरे पाद में योग के यम, नियम आदि पांच अंगों का निरूपण किया है। इस विभूतिपाद में योग के तीन अंगों-धारणा, ध्यान और समाधि का निरूपण है। इस पाद के पचपन सूत्र हैं। उनमें प्रथम पांच सूत्रों में 'संयम' प्रतिपादित है। किन्तु संयम की कोई स्पष्ट परिभाषा वहां नहीं है। योगदर्शन को पढ़ने की आज सबसे बड़ी समस्या भी यही है कि परिभाषाएं नहीं मिलती और भाष्यकार ने जो परिभाषाएं की हैं उनको पढ़ने से ज्ञात होता है कि स्वयं भाष्यकार उलझे हुए हैं, स्पष्ट नहीं हैं। वे स्वयं भी नहीं समझ पा रहे हैं। उन्होंने लिखा है'त्रयमेकत्र संयमः'-धारणा, ध्यान और समाधि- इन तीनों का एक साथ योग होना संयम है। किंतु संयम क्या है, इसकी कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। इस कठिनाई को सुलझाने के लिए हमें तुलनात्मक अध्ययन की जरूरत होती है। जैन, बौद्ध तथा योग की परम्परा और वैदिक परम्परा-इन सबका यदि तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो एक की कमी दूसरे में पूरी हो जाती है। किसी में कुछ नहीं मिलता और किसी में कुछ नहीं मिलता। सर्वत्र ऐसी कमियां प्रतीत होती हैं। किन्तु एक परम्परा, दूसरी परम्परा की पूरक बन जाती है। जैनपरम्परा में या जैन-साधना पद्धति में संयम की बहुत सुन्दर परिभाषा मिलती है। 'सवणे नाणे विन्नाणे, पच्चक्खाणे य संयमें'-प्रत्याख्यान से संयम होता है। शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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