SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५.मात्म-तुला और मानसिक हिंसा पहले अध्ययन में अप्राणातिपात का निरूपण है। यह अहिंसा का मूल आधार रहा है । जीव वध न हो, सर्वथा अप्राणातिपात। इसका सर्वांगीण विवेचन प्राप्त है। प्रश्न यह होता है कि क्या अप्राणातिपात ही अहिंसा है ? प्रस्तुत अध्ययन में मानसिक अहिंसा की कोई चर्चा नहीं है। व्यावहारिक अहिंसा का भी कोई उल्लेख नहीं है। इनका प्रतिपादन क्यों नहीं किया गया? यदि गहराई से हम सोचें तो यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि जहां सर्वथा अनारंभ का प्रतिपादन है वहां इन प्रश्नों को अवकाश ही नहीं रहता। हिंसा के मूल में द्वेष की वृत्ति काम करती है। आत्मौपम्य का जितना अभाव होता है, उतनी ही हिंसा होती है। प्रस्तुत अध्ययन (शस्त्र-परिज्ञा) में आत्म-तुला पर सारा भार दिया गया है । जब आत्म-तुला की चेतना जाग जाती है तब अन्यान्य बातें स्वतः निरस्त हो जाती हैं। आत्म-तुला का विकास होने पर किसी के प्रति मानसिक दुश्चिन्तन, अन्याय, अप्रामाणिक व्यवहार, अनिष्ट भावना-ये नहीं आ सकते। आत्म-तुला के अभाव में ये सारे पनपते हैं। एक प्रस्थापना यह है-आत्म-तुला का विकास करो। प्राणीमात्र के प्रति आत्मानुभूति, आत्मौपम्य का अनुभव करो। जब तादात्म्य का अनुभव होगा तब मानसिक और व्यावहारिक हिंसाएं अपने आप समाप्त हो जाएंगी। क्योंकि जब तादात्म्य की अनुभूति नहीं होती तब मानसिक और व्यावहारिक हिंसा को पनपने का अवसर मिलता है। जो व्यक्ति शिखर को छू लेता है, उसके लिए तलहटी को छुने की बात शेष नहीं रहती। इस दृष्टि से ही समूचे अध्ययन में आत्म-तुला के विकास पर बल दिया गया है। आत्म-तुला का अनुभव करो और प्राणियों के सुख-दुःख को समझो-यही इसका निष्कर्ष है-एयं तुलमण्णेसि (१-१४८) सर्वेसि पाणाणं सवेसि भूयाणं सर्वसि जीवाणं सर्वसि सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महन्भयं दुक्खं ति बेमि ॥ (१-१२२) यह अहिंसा का मानदंड है, कसौटी है। अस्सायं अपरिनिव्वाणं महन्भयं दुक्खंउन सब जीवों के लिए जो अपरिनिर्वाण है, अशांति है, वह किसी को प्रिय नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003087
Book TitleManan aur Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy